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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates पंचम - सम्यग्दर्शन अधिकार] [२०३ इसलिये जो ज्ञानी हैं, धर्म बुद्धि वाले हैं वे तो सभी धर्म के कार्य यत्नाचार से करते हैं, करना चाहिये। जिस प्रकार जीवों की विराधना न होवे उस प्रकार करना चाहिये। फूलों के धोने में दौड़ते हुए त्रस जीवों की बहुत हिंसा होती है। इसमें हिंसा तो बहुत है तथा परिणामों की विशुद्धता थोड़ी है। इसलिये पक्षपात छोड़कर जिनेन्द्र के कहे अहिंसा धर्म को ग्रहण करके जितना कार्य करो उतना यत्नाचार रुप होकर जीवों की विराधना टालकर करो। __इस कलिकाल में लोग भगवान का कहा नय-विभाग तो समझते नहीं है, तथा शास्त्रों में लिखा है, उस कथनी को नय - विभाग से जानते नहीं है, तथा अपनी कल्पना से ही पक्ष ग्रहण करके चाहे जैसे प्रवर्तते है। रात्रि पूजन निषेध : कितने ही पक्षपाती लोग भादों में दिन में तो पूजन नहीं करते हैं, रात्रि में पूजन करते हैं। बहुत दीपक जलाते हैं, नैवेद्य चढ़ाते हैं, फूलों के डेर चढ़ाते हैं, उनमें लाखों मच्छर, डांस, मक्खी तथा हरे, पीले, काले, लाल रंग के करोड़ों त्रस जीव, अनेक रंग के छोटी अवगाहना वाले जीव सामग्री बनाने में, चढ़ाने के थालों में, वस्त्रों में, दीपकों के निमित्त से दर से आ-आकर गिर-गिरकर मरते हैं। प्रत्यक्ष ही देखते हैं - अपने मुँह में नाक में, आंखों में, कानों में घुस जाते हैं, उड़ते हैं मरते हैं तो भी अपना पक्ष नहीं छोड़ते; दिन छोड़कर रात्रि में पूजन करते हैं। रात्रि में तो आरंभ छोड़कर बड़े यत्नाचार सहित रहने की आज्ञा है। धर्म का स्वरुप तो बाह्य जीव दया तथा अंतरंग में राग, द्वेष, मोह का विजयरुप है। जहाँ जीव हिंसा हैं, वहाँ धर्म नहीं है। जहाँ अभिमान के वश होकर एकान्त के पक्ष को पकड़कर अपना पक्ष पोषण करने के लिये हिंसा का भय नहीं करते हैं, वहाँ धर्म नहीं है। कितने ही एकान्ती मंडल मांडकर आठ दिन, दस दिन तक पूजन रखते हैं। उस साम्रगी में प्रत्यक्ष आंख से दिखाई देनेवाले लट, कीडें घूमते हैं; फल आदि गलकर चलित रस को जाते है; तथा नैवेध आदि की गंध से कीडों की लाइन लग जाती हैं; प्रभावना के लिये वहाँ अनेक मनुष्य आते हैं, उनके पैरों से खुन्दकर मर जाते हैं। ऐसा प्रत्यक्ष देखते हुए भी अपने पक्ष के अभिमान के अंधकार से अंधे होकर नहीं देखते हैं। रात्रि की वासी सामग्री रखना महाहिंसा का कारण है। अनेक पुराणों में व अनेक श्रावकाचारों में अरहन्त की प्रतिमा की अष्ट द्रव्यों से ही पूजन करने का उपदेश है। कहीं अरहन्त के प्रतिबिम्ब के स्तवन का, वन्दना का, तथा कहीं अभिषेक का वर्णन है; किन्तु प्रतिबिम्ब तदाकर होने से किसी ग्रन्थ में भी स्थापना का वर्णन नहीं है; और अब इस कलिकाल में प्रतिमा विराजमान होने पर भी स्थापना को ही मुख्य कहते हैं। इस जयपुर में संवत् १८५० (अठारह सौ पचास) के वर्ष में अपने मन की कल्पना से किसी-किसी ने नई स्थापना करने की प्रवृत्ति चलाई है। उनमें अरहन्त १, सिद्ध २, आचार्य ३, उपाध्याय ४, साधु ५, जिनवाणी ६, दशलक्षण धर्म ७, सोलह कारण ८, रत्नत्रय ९, इन नौ की स्थापना करते हैं; तथा ऐसा कहते हैं- जिसके सप्त व्यसन का त्याग, अन्याय का त्याग, अभक्ष्य का त्याग Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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