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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates २०२] श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार यह जिनेन्द्र का धर्म जाति, कुल के आधिन नहीं है, धन सम्पति के आधिन नहीं है, बाह्य क्रिया के आधिन नहीं हैं। जीव को अपने परिणामों की विशुद्धता के अनुसार फल देता है। कोई धनवान अभिमानी यश का इच्छुक होकर मोतियों के अक्षत, माणिकों के दीपक, रत्नस्वर्ण के पुष्पों द्वारा पूजन करता है, अनेक बाजे-नृत्यगान करके बड़ी प्रभावना करता है, तो भी थोड़ा सा ही पुण्य उपार्जन करता है, या अल्प पुण्य भी नहीं उपार्जन करता है, केवल पाप कर्म का बन्ध करता है, कषायों के अनुसार बंध होता है। कोई अपने भावों की विशुद्धता से अति भक्तिरुप होकर किसी एक जल-फलादि द्वारा व अन्न मात्र द्वारा व स्तवन मात्र द्वारा, महापुण्य का उपार्जन करते हैं तथा अनेक भवों के संचित किये पापकर्म की निर्जरा करते हैं। धन के द्वारा पुण्य मोल नहीं आता है। जो निर्वांछक हैं, मंदकषायी हैं, ख्याति लाभ पूजादि को नहीं चाहते हैं, केवल परमेष्ठी के गुणों में अनुरागी हैं उनको जिनपूजन बहुत अधिक फल देने रुप फलता है। अब यहाँ जिनपूजन सचित्त द्रव्यों से भी और अचित्त द्रव्यों से भी करना आगम में कहा है। जो सचित्त के दोष से भयभीत हैं, यत्नाचारी हैं वे तो प्रासुक जल, गंध, अक्षत को चंदन केशर आदि से रंगकर सुगंधित रंगीन अक्षतों में पुष्पों की कल्पना करके पुष्पों से पूजते हैं। आगम में कहे स्वर्ण के पुष्प, चांदी के पुष्प तथा रत्नजड़ित स्वर्ण के पुष्प तथा लवंग आदि अनेक मनोहर पुष्पों द्वारा पूजन करते हैं। प्रासुक, बहुत आरंभ आदि से रहित, प्रामाणिक नैवेद्य द्वारा पूजन करते हैं। रत्नों के दीपक व स्वर्ण-चाँदी के दीपकों द्वारा पूजन करते हैं; चिटकों (खोपर के छोटेछोटे भाग) को केशर के रंग से रंगकर दीपक की कल्पना करके पूजन करते हैं। चन्दन, अगर आदि चढ़ाते हैं। बादाम, जायफल, पूंगीफल आदि अवधि शुद्ध प्रासुक फलों द्वारा पूजन करते हैं। अचित्त द्रव्यों द्वारा तो इस प्रकार पूजन करते हैं। जो सचित्त द्रव्यों से पूजन करते हैं वे जल, गंध, अक्षतादि उज्ज्वल द्रव्यों द्वारा पूजन करते हैं। चमेली, चंपक, कमल , सेनजाई इत्यादि सचित पुष्पों द्वारा पूजन करते हैं। घी का दिपक तथा कपूर आदि के दीपकों द्वारा आरती उतारते हैं। सचित्त आम, केला, दाडिम आदि फलों द्वारा पूजन करते हैं, धूपायन में धूप जलाते हैं। इस प्रकार सचित्त द्रव्यों द्वारा भी पूजन करते हैं दोनों प्रकार से पूजन करना आगम की आज्ञा अनुसार प्राचीन मार्ग है। अपने भावों के अनुसार पुण्य बंध का कारण है। सचित्त पूजन निषेध : यहाँ ऐसा विशेष जानना - इस दुःखमकाल में विकलत्रय जीवों की उत्पत्ति बहुत है। फूलों में दो इंद्रिय, तीन इंद्रिय, चार इंद्रिय, पाँच इंद्रिय त्रस जीव प्रगट नेत्रों से दिखनेवाले दौड़ते दिखाई पड़ते हैं। फूल के पत्तों को झड़कार के देखिये तो हजारों जीव फिरते-दौड़ते दिखाई देते हैं। फूलों में त्रस जीव तो बहुत होते ही हैं, तथा बादर निगोदिया जीव अनंत होते हैं, चैत्र माह में तथा वर्षा ऋतु में त्रस जीव बहुत उत्पन्न होते हैं। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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