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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates पंचम - सम्यग्दर्शन अधिकार] [२०१ इस प्रकार जो अपने देश-काल की योग्यता प्रमाण एक द्रव्य से भी पूजन, दो द्रव्यों से, तीन द्रव्यों से, चार द्रव्यों से, पाँच द्रव्यों से, छह द्रव्यों से, सात द्रव्यों से,अष्ट द्रव्यों से भी पूजन करके अपने भावों को परमेष्ठी के ध्यान में लगाते हें, स्तवन पढ़ते हैं, वे महापुण्य उपार्जन करते हैं तथा पाप की निर्जरा करते हैं। यहाँ ऐसा विशेष जानना - जो चार प्रकार के देव जिनेन्द्र की पूजा करनेवाले हैं वे सभी तो कल्पवृक्षों से प्राप्त गन्ध, पुष्प, फल आदि सामग्री द्वारा पूजन करते हैं; तथा सौधर्म इन्द्रादि जो सम्यग्दृष्टि देव हैं वे तो जिनेन्द्र की भक्ति, पूजन, स्तवन करके ही अपने देव पर्याय को सफल मानते है। मनुष्यों में चक्रवर्ती, नारायण, बलभद्र आदि राजेन्द्र हैं वे मोतियों के अक्षत, रत्नों के पुष्प, फल, दीपक आदि तथा अमृतपिंड आदि के द्वारा जिनेन्द्र की पूजन, स्तवन, नृत्य, गान आदि करके महापुण्य उपार्जन करते हैं। अन्य मनुष्यों में भी जिनके पुण्य के उदय से सम्यक् उपदेश प्राप्त कर लेने से जिनेन्द्र की आराधना में भक्ति उत्पन्न होती है वे सभी जाति, कुलवाले यथायोग्य पूजन करते हैं। सभी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र अपनी – अपनी सामर्थ्य , अपना-अपना ज्ञान, कुल, बुद्धि, सम्पदा, संगति, देश, काल में योग्य अनेक स्त्री, पुरुष, नपुंसक, धनवान, निर्धन, सरोग, निरोग जिनेन्द्र की आराधना करते हैं। कोई ग्रामनिवासी हैं, कोई नगर निवासी हैं, कोई वन निवासी हैं, कोई बहुत छोटे ग्राम में रहनेवाले हैं; उनमें से कितने ही तो उज्ज्वल अष्ट प्रकार की सामग्री बनाकर पूजन के पाठ पढ़कर पूजन करते हैं; कितने ही कोरा सूखा जवा, गेहूँ, चना, मक्का , बाजरा, उड़द, मूंग, मोंठ इत्यादि अनाज को मुट्ठी में लेकर जिनेन्द्र को अर्पण करते हैं। कोई रोटी चढ़ाता है, कोई रावड़ी चढ़ाता है, कोई अपने बाग से फूल लाकर चढ़ाता हैं। कोई दाल-भात व अनेक पकवान चढ़ाता है। कोई अनेक प्रकार के मेवा चढ़ाते हैं, कोई मोतियों के अक्षत, कोई माणिक के दीपक , कोई सोने-चाँदी तथा पाँच प्रकार के रत्नों से जड़े पुष्प-फल आदि चढ़ाते हैं। कोई दूध, कोई दही, कोई घी चढ़ाते हैं। कोई अनेक प्रकार के घेवर, लाडू, पेड़ा, बरफी, पूड़ी, पुआ, इत्यादि चढ़ाते हैं। कोई वंदना मात्र ही करते हैं, कोई स्तवन, कोई गीत, नृत्य, वादित्र ही करते हैं। कितने ही अस्पृश्य शूद्र आदि मंदिर के बाहर से ही रहकर मंदिर के शिखर की तथा शिखरों में जिनेन्द्र के प्रतिबिम्ब का ही दर्शन-वंदना करते हैं। इस प्रकार जैसा ज्ञान, जैसी संगति, जैसी सामर्थ्य , जैसी धनसम्पदा, जैसी शक्ति उसी के अनुसार देश-काल के योग्य जिनेन्द्र के आराधक मनुष्य हैं वे वीतराग का दर्शन, स्तवन, पूजन, वंदन करके भावों के अनुकूल उत्तम, मध्यम, जघन्य पुण्य का उपार्जन करते हैं। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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