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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates २००] [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार पूजा के भेद, विधि और प्रयोजन : पूजा दो प्रकार की है – एक द्रव्यपूजा, दूसरी भावपूजा । अरहन्त के प्रतिबिम्ब का वचनों के द्वारा स्तवन करना, नमस्कार करना, तीन प्रदक्षिणा देना, दोनों हाथों को जोड़कर अंजुलि को मस्तक तक ले जाना, जल चंदन आदि अष्ट द्रव्य चढ़ाना, वह द्रव्यपूजा, है। अरहन्त के गुणों में एकाग्र चित्त होकर, अन्य सभी विकल्प जाल छोड़कर उनके गुणों में अनुरागी होना, तथा अरहन्त के प्रतिबिम्ब का ध्यान करना वह भावपूजा है। अथवा अरहन्त के प्रतिबिम्ब के पूजन के लिये शुद्ध भूमि में, प्रामाणिक जल से स्नान करके, उज्ज्वल वस्त्र पहिनकर, महाविनय सहित, दोनों हाथों की अंजुलि जोड़कर, भक्ति सहित, उज्ज्वल निर्दोष जल के द्वारा अरहन्त के प्रतिबिम्ब का अभिषेक करना वह भी पूजन है। __ यद्यपि भगवान के अभिषेक का प्रयोजन नहीं है तथापि पूजन को ऐसा भक्तिरूप उत्साह का भाव आता है कि मैं अरहन्त को साक्षात् स्पर्श ही कर रहा हूँ, अभिषेक ही कर रहा हूँ। ऐसी भक्ति की महिमा है। उत्तम जल को रकाबी (छोटी कटोरी, कलशी आदि) में लेकर अरहन्त के प्रतिबिम्ब के आगे ऐसा ध्यान करता है : हे जन्म, जरा, मरण को जीतनेवाले जिनेन्द्र! मैं अपने जन्म, जरा, मरण के नाश के लिये जल की तीन धारायें आपके चरणारविन्द के आगे क्षेपण करता हूँ। हे जन्म, जरा, मरण रहित जिनेन्द्र ! आपके चरणों की शरण ही मुझे जन्म, जरा, मरण रहित होने को कारण है। हे संसार परिभ्रमण के आताप रहित जिनेन्द्र! मैं अपने संसार परिभ्रमण रूप आताप का नाश करने के लिये चंदन कपूर आदि द्रव्यों को आपके चारणों के आगे रखता हूँ। हे अविनाशी पद के धारक जिनेन्द्र ! मैं भी अक्षयपद की प्राप्ति के लिये अक्षतों को आपके चरणों के आगे क्षेपण करता हूँ। हे कामबाण के विध्वंसक जिनेन्द्र! मै भी अपने कामभाव के विध्वंस के लिये पुष्पों को आपके चरणों के आगे क्षेपण करता हूँ । हे क्षुधा रोग रहित जिनेन्द्र ! में भी अपने क्षुधा रोग का नाश करने के लिये नैवेध को आपके चरणों के आगे क्षेपण करता हूँ। ___ हे मोह-अंधकार रहित जिनेन्द्र! मैं भी अपने मोहरूपी अंधकार को दूर करने के लिये दीपक को आपके चरणों के आगे रखता हूँ। हे अष्ट कर्म के दाहक जिनेन्द्र! मैं भी अपने अष्ट कर्म के नाश के लिये धूप को आपके चरणों के आगे रखता हूँ। हे मोक्ष स्वरूप जिनेन्द्र! मैं भी मोक्षरूप फल को पाने के लिये फलों को आपके चरणों के आगे रखता हूँ। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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