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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates पंचम - सम्यग्दर्शन अधिकार] [१९९ उत्पन्न कराता है; शुभ-अशुभ वचन, राग, रुदन, सुगंध दुर्गंध – ये सभी अचेतन पुद्गल द्रव्य हैं; इनका श्रवण, अवलोकन, चिन्तवन, अनुभवन करने से रागद्वेष होते हैं; उसी प्रकार जिनेन्द्र की परम शान्तमद्रा ज्ञानियों को वीतरागता होने के लिये सहकारी कारण हैं. प्रेरक कारण नहीं है। भव्य जीवों को वीतरागता के सिवाय कुछ चाहना नहीं है। जिनेन्द्र के चरणों में पूजन के समय जो जल, चंदन आदि द्रव्य चढ़ाते हैं, वह भगवान को खाने के लिये नहीं हैं; वे पूजा नहीं करने से अपूज्य रह जायेंगे या उस सामग्री की वे वासना ले लेते हैं, ऐसे अभिप्राय से सामग्री नहीं चढ़ाते हैं। वह तो भगवान के दर्शन के अत्यधिक आनंद से जल, चंदन आदि रूप अर्घ उतारण करना है। जैसे राजादि की भेंट करना, नजर करना, आरती उतारना, निछरावलि करना, अक्षत-पुष्प आदि क्षेपण करना है। मोतियों के थाल भरकर उतारन करते हैं, स्वर्ण की मुहरें, रुपयों का थाल उतारन करके लुटाते हैं; रत्नों के थाल भर के निछरावलि करके क्षेपते हैं; अक्षत-पुष्प आदि द्वारा उतारन करते हैं वह सब राजा की भक्ति तथा आनंद प्रकट करना है। राजाओं को दान नहीं दिया जाता है। जैसे राजाओं के निकट की हुई निछरावलि को याचकजन-अर्थीजन ग्रहण कर लेते हैं; उसी प्रकार भगवान् अरहन्त के आगे के स्थान में अष्ट द्रव्यों का अर्घ चढ़ाना जानना चाहिये। अब पूजन के योग्य नवदेव हैं। उनका वर्णन शास्त्रों में है : अरहन्त सिद्ध साहू तिदयं जिणधम्म वयण पडिमाहू। जिणणिलया इदिराए णव देवा दिंतु मे वोहि ।। अर्थ :- अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, सर्वसाधु, जिनधर्म, जिनवचन, जिनप्रतिमा, जिनमंदिर- इस प्रकार ये नव देव हैं, वे मुझे रत्नत्रय की पूर्णता देवें। जहाँ अरहन्त का प्रतिबिंब है वहाँ नवरूप देव गर्भित जान लेना चाहिये। आचार्य, उपाध्याय, साधु तो अरहन्त की पूर्व अवस्था है। सिद्ध हैं सो पहले अरहन्त होकर ही सिद्ध बने हैं। अरहन्तों की वाणी वह जिनवचन है। वाणी द्वारा जो अर्थ प्रकाशित किया है वह जिनधर्म है। अरहन्त का स्वरूप जहाँ विराजमान रहता है वह जिनालय है। इस प्रकार नव देवता रूप भगवान अरहन्त के प्रतिबिम्ब का पूजन नित्य ही करना योग्य है। अधोलोक में अरहन्त के कृत्रिम प्रतिबिम्ब, भवनवासियों के चमर-वैरोचन आदि इंन्द्रों द्वारा तथा असंख्यात भवनवासी देवों द्वारा पूजे जाते हैं। मध्यलोक में चक्रवर्ती, नारायण, बलभद्र आदि अनेक धर्मात्माओं द्वारा पूजे जाते हैं। व्यंतरलोक में व्यंतरों के इन्द्रों तथा देवों द्वारा पूजे जाते हैं। ज्योतिर्लोक में चन्द्र-सूर्य आदि असंख्यात ज्योतिषी देवों द्वारा पूजे जाते हैं। स्वर्गलोक में सौधर्म आदि इन्द्रों द्वारा तथा असंख्यात कल्पवासी देवों द्वारा पूजे जाते हैं। इस प्रकार तीनों लोकों के भव्य जीवों द्वारा वंदनीय पूज्य अरहन्त का तदाकार प्रतिबिम्ब है वह सदाकाल भव्य जीवों को पूजना योग्य है। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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