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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates 20 ली और बड़े ही उत्साह और दृढ़ निश्चय पूर्वक सिद्धकूट चैत्यालय (सोनीजी की नसीयाँ) में जिनेन्द्र देव की प्रतिमा के समक्ष विधि पूर्व शुभ मूहूर्त में सल्लेखना ग्रहण की। पंडित जी के सल्लेखना ग्रहण का समाचार सुनते ही उनके पास जयपुर से पं. पन्नालालजी संघी, नाथूलालजी दोशी, भोलीलालजी सेठी, पार्श्वदास जी निगोत्या, आदि शिष्य अजमेर उनके पास आए। सेठ मूलचन्दजी वहीं थे ही। पंडित जी ने उन सभी से कहा " मैं अब इस अस्थायी पर्याय से विदा ले रहा हूँ। मुझ से पूर्ववर्ती पं. टोडरमलजी, पं. जयचन्दजी आदि विद्वानों और हम सभी ने बड़े श्रमपूर्वक जिन अपेक्षाओं से साहित्य का सृजन किया है, उसका व्यापक प्रचार-प्रसार करना ताकि वर्तमान और भावी पीढ़ी उससे लाभ उठाती रहे। विद्वानों की परम्परा सदा बनी रहे ऐसा प्रयत्न करते रहना। सच्चे ज्ञान की अजस्र धारा सदा प्रवाहित रखना ही माँ जिनवाणी की सच्ची आराधना है, उपासना है। इससे समाज मिथ्यात्व और शिथिलाचार की ओर प्रवृत्त होने से बचा रहेगा। वर्तमान में जिनवाणी के प्रचार-प्रसार से बढकर पुण्य और धर्म-प्रभावना का अन्य कोई कार्य नहीं है।" शिष्यों द्वारा अपनी इन अंतिम भावनाओं के संकल्प की स्वीकृति करने पर अपने मन में संतोष और निर्विकल्प भाव का अनुभव किया। सभी सल्लेखना की महत्ता और पंडितजी के दृढ संकल्प से परिचित थे और पंडितजी के शरीर की शिथिलता भी देख रहे थे। अतः अंतिम समय तक इनके साथ रहने तथा इस महत् कार्य में सहयोग देने की इच्छा से ये सभी विद्वान अजमेर में ही रूक गए। सल्लेखना के ग्रहण का समाचार बिजली की तरह फैल गया। इसका प्रायोगिक रूप, वह भी किसी श्रावक द्वारा इसको ग्रहण करके जीवन सार्थक करते देखने का तत्कालीन लोगों के समक्ष यह प्रथम सुअवसर था। पंडितजी की सल्लेखना पूर्ण दृढ़ता पूर्वक और क्रमशः चतुर्विध आहार के त्याग के साथ पूर्ण साधना और संयमपूर्वक सध रही थी। सल्लेखना के इस महान् स्वरूप को देखने दिन प्रतिदिन बड़ी संख्या में लोग आ रहे थे। पंडितजी भी द्विगणित उत्साह से बारह भावनाओं आदि का चिंतन करते हए आत्म लीन और भाद्रपद कृष्णा एकादशी वि. सम्वत् १९२२ को नशियाँजी के पार्श्व में स्थित रंग-महल के एकान्त स्थल में अन्तिम श्वास के साथ ही उन्होंने सल्लेखना पूर्ण की और अपने आप में लीन रहते हए अंतिम श्वास के साथ ही मनष्य जीवन को सार्थक किया। __पं. पार्श्वदास निगोत्या (पं. सदासुखदासजी के शिष्य) विरचित ज्ञानसूर्योदय नाटक की देश भाषामय वचनिका के अन्तिम पृष्ठ में जिसमें इन्होंने अपने गुरु पंडित सदासुखजी की प्रशंसा की है। कवित्त: जयपुर में बसै एक श्रावक खण्डेलवाल-जैनी निगोत्या पार्श्वदास कहायो है। सैली के प्रसाद समझि मिथ्याविष, वमन कियो सदासुखज साहिब पास नाटक सुनि पायो है। स्याद्वाद रूप छहूँ द्रव्य को स्वरूप जाणि, आतमरूप परख्यो अनुभूति रूप गायो है ।। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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