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नाटकवचनिका करी बाँचो साधर्मीजन, अनुभव को ग्रंथ भाव भाय यो रचायो है, है अनुभव को ग्रंथ यह बाँचो सुणो सजीव । उर विच अनुभव कीजियो, पावो सौख्य अतीव ।। " श्रुत व्याख्या वक्ता उच्चरै, नाम सदासुख जो गुण धरै । जिनके गुण कहाँ लौ हम कहे, कथन सुनत जिनमत सरै ।। “लौकिक प्रवीना तेरापंथ मांयलीना, मिथ्या बुद्धि कर छीना, जिन आतम गुण चीन्हा है। पढे और पढावे मिथ्या अलट कुँ कढावै ज्ञानदान देय जिन मारग बढ़ावे है । दीसै धरवासी, रहै घर हूँ ते उदासी, जिन मारग प्रकाशी, जाकी कीरति जगभासी है। कहाँ लौ कहीजे गुणसागर सदासुखजू के, ज्ञानामृत पिय बहु मिथ्यामति नासी है ॥" "जिनवर प्रणीत जिन आगम मे सूक्ष्म दृष्टि, जाको जश गावत अधावत नहीं सृष्टि है। संशय - तम - हान, सन्तोष - रस मग्न रहे, साँचो निज-परस्वरूप भाषत अभीष्ट है। ज्ञान-दान बटत अमोघ छह पहर जाके, आसा की वासना मिटाई गुण इष्ट है। सुखिया सदीव रहै, ऐसे गुण दुर्लभ मिलै,
“पारस" अजमाई सदासुख जू पर दृष्टि है। वर्तमान दि. जैन आचार्य संस्कृत महाविद्यालय जयपुर की स्थापना के मूल प्रेरक
शास्त्र प्रचार का कार्य तो यथोचित चल ही रहा था परन्तु अन्यान्य कारणों से स्थायी स्वतंत्र विद्यालय के रूप में ज्ञान प्रसार का कार्य प्रारम्भ तो नहीं हो सका परन्तु पं. पन्नालाल जी संघी आदि के निवास में ही पठन-पाठन का कार्य चलता रहता था। विक्रम संवत् १९२२ में जीवन के अन्तिम समय में पंडितजी ने पंडित भोलीलालजी सेठी को पं. पन्नालालजी संघी की तरह ज्ञान प्रचार प्रसार का कार्य सौंपा। उन्होंने इस हेतु प्रयत्न प्रारम्भ कर दिया और पं. सदासुखदासजी की अन्तिम अभिलाषा
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