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सल्लेखना पूर्वक पंडितजी का समाधिमरण पंडितजी को ग्रन्थो की भाषा वचनिका और समाधिमरण संबंधी ग्रंथ लिखते तथा स्वाध्याय जैसे कार्य करते समय उनके मन में समाधि ग्रहण करने के भाव बराबर विद्यमान रहे है, यह उनकी स्वयं की लेखनी से प्रतीत होता है। “भगवती आराधना” की भाषा वचनिका समाप्ति के समय उनके स्व निर्मित पद में उन्होने कामना की है :
मेरा हित होने कूँ और, दीखै नहीं जगत में ठौर, यातें भगवती शरण जु गही, मरण आराधना पाऊँ सही। हे भगवति! तेरे परसाद तैं, मरण समै मत होहु विषाद , पंच परम गुरु पद करि ढोक , संयम सहित लहूँ परलोक ।। हरो जगत के दुःख सकल करो “ सदासुख" कन्द ।
लसो लोक में भगवती आराधना अमन्द । उन्हें जब अपनी इस पर्याय के अन्त का भान होने लगा तब उन्होंने सोचा मेरे जीवन की असली परीक्षा का समय आ गया है। उन्हें ऐसा भान रत्नकरण्ड श्रावकाचार की टीका करते हो गया था – उन्होंने षष्ठ भावना अधिकार के अंत में लिखा कि :___“अनेकान्त भावना और समयसारादि भावना वर्णन करनी चाहिए परन्तु आयु काय का अब शिथिलपनाते ठिकाना नाहीं इसलिए कथन को समेटकर मूलग्रंथ का कथन लिखना चाहिए।” और उन्होंने सप्तम सल्लेखना अधिकार की भाषा-वचनिका लिखते समय स्वलिखित समाधिमरण सम्बन्धी भावनाएँ याद आई, जिसमें उन्होंने लिखा है कि
“समाधिमरण के समान इस जीव का उपकार करने वाला कोई नहीं है.... “देह तें भिन्न ज्ञान-स्वभाव रूप आत्मा का अनुभव करि, भय रहित, चार आराधना शरण सहित मरण हो जाय तो इस समान त्रैलोक्य में, तीन काल में इस जीव का हित है नाही – जो संसार परिभ्रमण तें छूट जाना सो समाधिमरण नाम मित्र का प्रसाद है"
“अतः भगवान वीतराग सौं ऐसी प्रार्थना करूँ हूँ जो मेरे मरण के समय वेदना-मरण तथा आत्मज्ञान रहित मरण मत होहू" धर्मध्यान ते मरण चाहता वीतराग ही का शरण ग्रहण करूँ हूँ।"
पंडितजी का उनके परिवार में उनका सहारा जो एक मात्र पुत्र था जब वह भी युवावस्था में संसार से चला गया था तब उनके शिष्य सेठ मूलचन्दजी सोनी उन्हें अजमेर लिवा लाए थे। उन्होंने सोचा यहाँ मुझे सब तरह की अनुकूलताएँ है, अब मुझे सल्लेखना ग्रहण करने में किंचित् भी विलम्ब नहीं करना चाहिए। इस प्रकार पंडितजी ने मानसिक रूप से सल्लेखना ग्रहण की पूरी तैयारी कर
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