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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
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इनमें रत्नत्रयधर्म का अभाव होने से पात्रपना नहीं हैं। कुधर्मरूप जो मिथ्याधर्म – परोपकार की भावना, दयावानपना, क्षमा, संतोष, शील, सत्य, त्याग आदि पूजा, जाप, नाम स्मरण आदि मिथ्याधर्म भी जिनमें नहीं पाये जाते हैं इसलिये कुपात्र भी नहीं है। गरीब, दीन, दरिद्र, दुःखी, भूखे भी नहीं अतः दयादान के भी पात्र नहीं हैं। ये तो केवल लोभी, मदोन्मत्त , विषयों के लंपटी हैं; धर्म के भी इच्छुक नहीं है। कितने ही नाम के जैनी होकर के जैनधर्म का भेष भी केवल जिह्वा इंद्रिय के विषयरूप अनेक प्रकार का भोजन जीमने के लिये धारण किया है; धन पैदा करने के लिये भेष धारण किया है; अभिमानी होकर अपनी पूजा, उच्चता, धन के लाभ के इच्छुक होकर तप, व्रत, पठन, वाचन आदि अंगीकार करते हैं, वे सब अपात्र हैं, दान के योग्य नहीं हैं।
अपात्र को दान देना कैसा है ? पत्थर पर बीज बो देने के समान है, कडुवी तुम्बी में दूध रख देने के समान है, घने जंगल में चोर के हाथ में अपना धन सौंप देने के समान है, अपना जीवन बढ़ाने के लिये विष भक्षण करने के समान है, रोग दूर करने के लिये अपथ्य सेवन करने के समान है, सर्प को दूध पिलाने दुःख की उत्पत्ति का बीज है।
अपना धन अंधकूप में पटक देना परन्तु अपात्र को दान नहीं करना चाहिये। अपात्र दान तो अपने घर में विष के वृक्ष को उगाने के समान है। अपात्र का साथ दावाग्नि के समान दूर से ही त्याग देना चाहिये। जैसे विष के वृक्ष की गंध ही मूर्च्छित कर देती है उसी तरह अपात्र की संगति भी आत्मज्ञान से भ्रष्ट कर देती है।
इस प्रकार दान के वर्णन में पात्र, कुपात्र, अपात्र का वर्णन किया।
अब चार प्रकार का सुपात्रदान देकर जो प्रसिद्ध हुए हैं आगम के आधार से उनके नाम कहनेवाला श्लोक कहते हैं :
श्रीषेण वृषभसेने कौण्डेशः शूकरश्च दृष्टांताः।
वैयावृत्यस्यैते चतुर्विकल्पस्य मन्तव्याः ।।११८ ।। अर्थ :- चार प्रकार की वैयावृत्य के चार उदाहरण जानने योग्य हैं। आहारदान के फल में श्रीषेण राजा प्रसिद्ध हुए हैं। औषधिदान के फल में सेठ की पुत्री वृषभसेना प्रसिद्ध हुई है। शास्त्रदान के फल में कौण्डेश नाम का ग्वाला , जो आगे चलकर केवली बन गया , प्रसिद्ध हुआ है। वस्तिका दान (अभयदान) के फल में शूकर मरकर स्वर्ग लोक में महर्द्धिक देव होकर प्रसिद्ध हुआ है।
दान का अचिंत्य प्रभाव है। इस लोक में भी दानी सभी से उच्च हो जाता है। __ अब यहाँ ऐसा और भी विशेष जानना - दान देकर दान के फल में मेरे यहाँ विषय सामग्री अधिक हो जायगी – ऐसी विषयों की चाह कभी नहीं करना चाहिये। जो दान के फल से इंद्रियों के भोग चाहते हैं वे चिन्तामणि रत्न को देकर काँच का टुकड़ा चाहते हैं, अमृत छोड़कर विष पीना चाहते हैं, धागे के लिये मणियों का हार तोड़ना चाहते हैं, ईंधन के लिये कल्पवृक्ष काटना चाहते
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