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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates पंचम - सम्यग्दर्शन अधिकार]
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हैं, लोहे के लिये नाव को तोड़ना चाहते हैं तथा अपने गले में बड़ा भारी पत्थर बांधकर अगाध गहरे जल में प्रवेश करना चाहते हैं।
इंद्रियों के विषय कैसे हैं ? अग्नि के समान दाह उत्पन्न करनेवाले हैं, कालकूट जहर के समान बेहोश करनेवाले हैं – मार डालनेवाले हैं, पाँच पापों में प्रवर्तन करानेवाले हैं, तृष्णा उत्पन्न करानेवाले हैं, नरक प्राप्त करानेवाले हैं, महा बैर के कारण हैं; ज्वर रोग के समान संताप, मूर्छा, प्रलाप, दुःख, भय, शोक, भ्रम उत्पन्न करानेवाले हैं। विषयों का चिन्तवन ही जीव को अचेत कर देता हैं, सेवन करने से तो अनेक भवों में दुःख भोगना पड़ता है।
इसलिये निर्वांछक होकर दान-धर्म करना चाहिये। अपने को लाभान्तराय कर्म के क्षयोपशम से जो धन प्राप्त हुआ है उसी में संतोष करके आगामी विषयों की वांछा नहीं करो। पाव भर धान भी मिले तो उसमें भी दान का हिस्सा निकालना चाहिये। दान के निमित्त धन की वांछा नहीं करो। वांछा का अभाव हो जाना ही परम दान है, वही परम तप है। ___ इसी वैयावृत्य को ही अतिथिसंविभाग व्रत कहते हैं। इस प्रकार दान का वर्णन किया। अब वैयावृत्य में ही जिनेन्द्र पूजन का उपदेश करनेवाला श्लोक कहते हैं :
देवाधिदेवचरणे परिचरणं सर्वदुखनिर्हरणम्।
कामदुहि कामदाहिनि परिचिनुयादादृतो नित्यम् ।।११९ ।। अर्थ :- देव जो इंद्रादि उनके अधिदेव अर्थात् स्वामी जो अरहन्तदेव, उनके चरणों के समीप जो परिचरण अर्थात् पूजन वह नित्य ही करना चाहिये। कैसी है पूजन ? समस्त दुःखों का नाश करनेवाली, मनोवांछित को पूर्ण करनेवाली और कामभाव का नाश करनेवाली हैं।
भावार्थ :- गृहस्थ को नित्य ही प्रथम जिनेन्द्र का पूजन करना चाहिये। जिनेन्द्र के पूजन समान सर्वोत्तम कार्य दूसरा नहीं है।
यहाँ ऐसा संबंध जानना - जिन्हें किंचित् मात्र भी अशुभ कर्म के क्षयोपशम से मनुष्यतिर्यंचों के समान सप्त धातुमय शरीर नहीं प्राप्त है, तथा आहार आदि के आधीन क्षुधा-तृषा आदि की वेदना मिटाना नहीं है, स्वयं ही कंठ में से अमृत झर जाता है जिससे क्षुधा-तृषा से होनेवाली वेदना का कष्ट उन्हें नहीं होता है, उन्हे बुढ़ापा आता नहीं है, रोग होता नहीं है, इत्यादि कर्मकृत कुछ भी बाधा नहीं होने से चारों गति के देवों को उत्तम कहते हैं।
ज्ञानावरण, वीर्यान्तराय आदि कर्म का अधिक क्षयोपशम होने से अन्य देवों की अपेक्षा जिनकी ज्ञान-वीर्य आदि शक्ति की अधिकता होने से देवों के स्वामी इंद्र सभी असंख्यात देवों द्वारा वंदनीय है। जो आत्मा की शक्ति की घातक ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय व अन्तराय आदि समस्त कर्मों का नाश करके जिनेन्द्र हुए हैं, वे सभी इंद्रादि द्वारा वंदनीय हैं, अतः वे जिनेन्द्र देवाधिदेव हैं।
देवाधिदेव के चरणों का पूजन समस्त दुःखों का नाश करने वाला है। इंद्रियों के विषयों की कामना का नाश करके मोक्षरूप सुख की कामना को पूर्ण करने वाला है। अतः अन्य समस्त
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