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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
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औषधिदान : रोग का नाश करनेवाली प्रासुक औषधि का दान श्रेष्ठ है। रोग से व्रत-संयम बिगड़ जाता है, स्वाध्याय, ध्यान आदि सभी धर्म कार्यों का लोप हो जाता है। रोगी से सामायिक आदि आवश्यक नहीं बन सकते हैं। रोग से निरन्तर आर्तध्यान होता है, मरण बिगड़ जाता है। रोगी को दिन-प्रतिदिन संक्लेश बढ़ता है। रोगी आपघात करना चाहता है, पराधीन हो जाता है, मन-इंद्रियाँ चलायमान हो जाते हैं, उठना-बैठना सोना-चलना बहुत कठिन हो जाता है। स्वास के साथ कष्ट बढ़ता जाता है, क्षणधर को चैन नहीं पड़ती है। बहुत क्या कहें ? रोगी को खाना, पीना, बोलना, चलना, देना, लेना, सोना, उठना, बैठना सभी कार्य जहर पीने के समान कष्ट देनेवाले हो जाते हैं। अत: प्रासुक औषधिदान देकर रोग मिटाने के समान कोई उपकार नहीं है। रोग मिटने पर ही आहार आदि किया जा सकता है, रोग रहित होने पर ही तप, व्रत, संयम, ध्यान, स्वाध्याय, कायोत्सर्ग आदि सभी किये जा सकते हैं।
ज्ञानदान : ज्ञानदान समान जगत में उपकार दूसरा नहीं है। ज्ञान बिना मनुष्य जन्म में भी पशु के समान है। ज्ञानाभ्यास बिना अपना तथा पर का ज्ञान नहीं होता है। ज्ञान बिना इसलोक-परलोक का जानना कैसे हो? ज्ञान बिना धर्म का स्वरूप, पाप का स्वरूप, करने योग्य, नहीं करने योग्य का विचार नहीं होता है। ज्ञान बिना देव-कुदेव का , गुरु-कुगुरु का, धर्म-कुधर्म का जानना नहीं होता है।
ज्ञान बिना मोक्ष मार्ग नहीं, ज्ञान बिना मोक्ष नहीं। ज्ञान रहित मनुष्य में और पशु में भेद नहीं रहता है। इंद्रियों को पोषना, कामसेवन करना तो तिर्यंचों के भी होता है। मनुष्य जन्म तो ज्ञान ही से पूज्य है। जिसने ज्ञान दान दिया उस पुरुष ने समस्त दान दिया। परमोपकार तो ज्ञानदान ही है।
वस्तिकादान : वस्तिकादान अर्थात् स्थानदान। शीत, उष्ण, वर्षा, हवा आदि की बाधा से रहित, ध्यान-स्वाध्याय की सिद्धि का कारण ऐसा स्थान का दान श्रेष्ठ है।
यहाँ ऐसा विशेष जानना - उत्तम पात्र जो परम दिगम्बर महामुनि उनका समागम तो किसी महाभाग्यवान पुरुष को कभी होता है। जैसे जगत पत्थरों से बहुत भरा है, परन्तु चिन्तामणि रत्न की प्राप्ति होना अति दुर्लभ है; वैसे ही वीतरागी साधु का मिलना दुर्लभ है। फिर आहारदान होना अति ही दुर्लभ है। आहार भी साधु के निमित्त नहीं बनाया गया हो; साधु सोलह उद्गम दोष , सोलह उत्पादन दोष, दश एषणा दोष, इस प्रकार वियालीस दोष तथा प्रमाण १, संयोजन २, धुम्र ३, अंगार ४, कुल छियालीस दोष बत्तीस अंतराय, चौदह मल दोष टालकर एक बार भोजन करते हैं। आधा पेट भोजन से भरते हैं, चौथाई पेट जल से भरते हैं तथा शेष चौथाई भाग खाली रखते हैं। ऐसा आहार भी कभी एक उपवास की पारणा में, कभी दो उपवास की पारणा में, कभी तीन उपवास की पारणा में, कभी पंद्रह दिन के पक्षोपवास की पारणा में, कभी एक माह के उपवास की पारणा में अयाचीक वृत्ति से नवधा भक्ति द्वारा दिया हुआ भोजन किसी बहुत पुण्यवान के घर होता है।
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