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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates पंचम - सम्यग्दर्शन अधिकार]
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करूँ जिसकी सलाह से मुझे धन की कमाई हो जाय, किस सेवक को अपने यहाँ काम करने को रख लूँ जो मेरा थोड़ा धन खाय तथा बहुत धन कमाकर दे ?
ऐसे हजारों दुर्ध्यान करता हुआ संसारी जीव समस्त , राज्य, ऐश्वर्य छोड़कर महामूर्छा से अतिरौद्र परिणामों से मरकर नरक के घोर दुःख भोगता है। संसार में अनंत दुःखरूप परिभ्रमण करता हुआ क्षुधा, तृषा, रोग, दारिद्र को भोगता हुआ अनंतकाल व्यतीत करता है।
अब इस घोरकाल में, कोई कुछ मोह निद्रा के उपशम होने से जिनेन्द्र भगवान् के वचन से, कोई अत्यन्त विरले पुरुष सचेत होकर, अपने हित का विचार करते हुए, चार प्रकार के दानों में प्रवर्तन करते हैं।
आहारदान : दानों में आहारदान प्रधान हैं। इस जीव का जीवन आहार से है। करोड़ स्वर्ण मुद्राओं का दान भी आहारदान के समान नहीं है। आहार से ही देह रहती है, देह से रत्नत्रय धर्म पलता है, रत्नत्रय धर्म से निर्वाण होता है। निर्वाण में अनन्त सुख है। त्यागी निर्वाछक साधुओं का उपकार तो एक आहार दान से ही है। वे तो आहार के सिवाय अन्य कुछ तिल-तुष मात्र भी अंगीकार नहीं करते हैं। आहार के बिना शरीर नहीं रहता, अनेक रोग हो
आहार बिना ज्ञानाभ्यास नहीं होता, व्रत, संयम, तप एक भी नहीं पलते। आहार बिना सामायिक, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग, ध्यान एक भी नहीं होता है। आहार बिना परमागम का उपदेश नहीं होता है, आहार बिना उपदेश ग्रहण करने में समर्थ नहीं हो पाता है।
आहार बिना कांति नष्ट हो जाती है, बुद्धि नष्ट हो जाती है, कीर्ति, शांति, शांति, नीति, प्रीति, प्रतीति, गति, रति, उक्ति, शक्ति, द्युति आदि समस्त गुण नष्ट हो जाते हैं। आहार बिना समभाव, इंद्रिय दमन, जीवदया , मुनिश्रावक के धर्म विनय में प्रवृत्ति, न्याय में प्रवृत्ति, तप मे प्रवृत्ति, यश में प्रवृत्ति, सब नष्ट हो जाते हैं।
आहार बिना वचन की प्रवीणता नष्ट हो जाती है, शरीर का वर्ण बिगड़ जाता हे, शरीर मे मुख में दुर्गन्धता हो जाती है, शरीर जीर्ण हो जाता है, सभी क्रियायें नष्ट हो जाती हैं। आहार नहीं मिले तो अपने प्यारे पुत्र-पुत्री-स्त्री को बेच देता है। आहार बिना नेत्रों से देखने को समर्थ नहीं हो पाता, कानों से सुनने को, नासिका से गंध ग्रहण करने को, स्पर्शन इंद्रिय से स्पर्श करने को समर्थ नहीं हो पता है।
__ आहार बिना समस्त चेष्टा रहित मृतक समान हो जाता है, आहार बिना मरण हो जाता है, आहरा बिना चिंता, शोक, भय, क्लेश, समस्त संताप प्रकट हो जाते हैं। आहार बिना दीनता हो जाती है, संसारी लोग अपमान करते हैं। ऐसे घोर दुःख, दुर्ध्यान को दूर करनेवाला जिसने आहारदान दिया उसने समस्त व्रत संयम में प्रवृत्ति कराई, समस्त रोगादि दूर किये। अतः आहारदान समान कोई उपकार नहीं है।
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