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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates पंचम - सम्यग्दर्शन अधिकार] [१८१ अयाचीक वृत्ति धारण किये मौन सहित मुनीश्वर को औषधिदान देना भी दुर्लभ है। किसी गृहस्थ ने अपने निमित्त प्रासुक औषधि बनाई हो तथा अचानक मुनिराज का समागम हो जाय, तथा शरीर की चेष्टा से बिना कहे ही रोग को जानकर योग्य औषधि होय तो दे देवे। अत: साधु को औषधि का दान देना भी दर्लभ है। शास्त्रदान भी योग्य पुस्तक, इच्छा होय हो, जब तक पढ़ना हो तब तक के लिये लेते हैं, पश्चात् पढ़कर वन में या वन के चैत्यालय में रखकर चले जाते हैं। मुनीश्वरों को वस्तिका का दान देना भी दुर्लभ है। दिगम्बर मुनि एक स्थान में रहते नहीं है, कभी तो वे पर्वतों की गुफा में, कभी भयंकर वन में, कभी नदियों के पुलों में ध्यान-अध्ययन करते रहते हैं। कोई कभी ग्राम के बाहर की वस्तिका में एक दिन, नगर के बाहर की वास्तिका में पांच दिन, वर्षा ऋतु में चार महिना एक ही स्थान में रहते हैं। कभी किसी साधु के समाधिमरण का प्रसंग आ जाय तो माह-दो माह एक स्थान पर रह जाते हैं। अन्य किसी कारण से जैन का दिगम्बर साधु एक स्थानमें नहीं रहता है। कोई कभी एकरात्रि-दोरात्रि भी निर्दोष प्रासुक वस्तिका में रह जाता है। वस्तिका कैसी होना चाहिये? साधु के निमित्त से नहीं बनवाई गई हो,उनके निमित्त बुहारी नहीं हो, मुनिराज के आ जाने के बाद धोना नहीं चाहिये, उजालदान खोलना नहीं, खिड़की बंद हो तो खोले नहीं, किराये पर लेना नहीं, बदले में अपनी वस्तिका देकर दूसरे की लेना नहीं, मांग कर लेना नहीं, राजा का भय दिखाकर लेना नहीं, इत्यादि छियालीस दोष रहित वस्तिका होना चाहिये। जीर्ण वन में हो, ऊजड़ ग्राम का मकान हो जहाँ असंयमीजनों का आना-जाना नहीं हो, स्त्री-नपुंसक-तिर्यचों का आना नहीं हो, जीव विराधना रहित हो, अंधेरा नहीं हो, वहाँ साधुजन एक रात्रि, दो रात्रि कभी बस जाते हैं। जो अनेक देशों में विहार करते हैं उनको वस्तिका का दान देना बहुत दुर्लभ है। अतः उत्तमपात्र को दान हो जाना अति दुर्लभ है। उत्तमपात्र की दुर्लभता : इस पंचमकाल में वीतरागी भावलिंगी साधु कोई विरला ही देशान्तर में रहता है, उनकी प्राप्ति होती नहीं। पात्र का मिल जाना तो चतुर्थकाल में ही बड़े भाग्य से होता था, परन्तु उस समय इस क्षेत्र में पात्र तो बहुत थे। अब इस दुखमकाल में यथावत् धर्म के धारक उत्तमपात्र कहीं देखने में नहीं आते हैं। धर्म रहित, अज्ञानी, लोभी बहुत विचरते हैं, वे अपात्र हैं। इस काल में धर्म प्राप्त करने वाले गृहस्थ , जिनधर्म के धारक श्रद्धानी भी कोई कहीं-कहीं मिलते हैं। वीतराग धर्म को सुनकर कुधर्म की अराधना दूर से ही छोड़कर, नित्य ही अहिंसा धर्म के धरनेवाले, जिन वचनामृत के पान करनेवाले, शीलवान, संतोषी, तपस्वी हैं वे ही पात्र हैं।अन्य भेषधारी तो बहुत विचर रहे हैं। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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