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आत्मानुभूति के बारे में वे भगवती आराधना वचनिका अन्त्य प्रशस्ति में लिखते हैं :
मैयाकूँ अनुभव जब किया, मनुज जनम फल निजसुख लिया । काल अनन्त व्यतीत जुभमया, आराधन अमृत अब पिया ।।१०।। याकूँ चित्त में धारण किया, तब मेरा मन अति हुलसिया ।
उनकी मुख्यतः तीन कार्यो में रूचि थी । ज्ञान की दृष्टि से स्वाध्याय, पठन-पाठन शास्त्र-प्रतिलिपि सरल भाषाओं में अनुवाद । स्थापत्य के क्षेत्र में प्राचीन शास्त्रों में वर्णित मंदिर की विधिविधान और स्थापत्थ कला के अनुसार नए भव्य जिन मन्दिरों का निर्माण तथा उन्हें मात्र दर्शन या पूजा पाठ के ही केन्द्र नहीं, अपितु शिक्षा के प्रमुख केन्द्र रूप में विकसित करने तदनुसार उनका निर्माण करने के लिए प्रेरित करना ।
सोनी नसियाँजी ( अजमेर) में अपूर्व पंचकल्याणक रचना के मूल प्रेरणा स्रोत
श्री सेठ मूलचन्दजी सोनी अजमेर वालों से पंडितजी का राजस्थान के टोंक नगर के सुप्रसिद्ध नसियाँजी में चैत्र कृष्णा दसवीं वि. स. १८९७ को सेठ नाथूलालजी द्वारा आयोजित विशाल धार्मिक मेले में आमन्त्रित उनके पिता सेठ जुहारुमलजी सोनी के साथ प्रथम सुखद मिलान हुआ। परस्पर एक दूसरे के व्यक्तित्व और विचारों से इतने प्रभावित हुए जैसे मणि– काँचन योग हो गया हो । धर्म संस्कृति, साहित्य, धर्मायतन, समाज तथा देशकाल के प्रभाव से इन क्षेत्रों में ह्रास और अपने कर्त्तव्य आदि विषयों पर परस्पर विस्तृत विचार-विमर्श हुए।
पंडितजी प्रारम्भ से ही साहित्यानुरागी थे ही और जब से यह मुलाकात हुई तब से तो उनमें इस क्षेत्र में विशेष लगाव और उत्साह हो गया। उनके एक पत्र सं. ४ मिति फागुन सुदी १३ सं. १८९९ में सेठ साहब को प्रेरणा दी थी उसका हिन्दी अनुवाद का अंश इस प्रकार है :
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“ जितने काल ग्रंथ रहेंगे जितने धर्म की परिपाटी चलती रहेगी इस धर्म के स्तंभ तो ये ग्रंथ ही है। जो ग्रंथ रहेंगे तो पढ़नेवाले भी उपजेंगे। संसार में धर्म ही शरण है । और जो संस्कृत, न्याय सिद्धान्त ग्रंथ का उद्धार हो तो विशेष बात है " अर्थ प्रकाशिका में जिनवाणी की महिमा बतलाते हुए वे लिखते हैं “ जिनके हृदय में ग्रंथ प्रवेश किए तिनके मिथ्या श्रद्धान जन्मान्तर में प्रगट नहीं होय है। इसकी महिमा वचन द्वारा कहने कूं कौन समर्थ है ? इस कलिकाल में ये ग्रंथ ही साक्षात् - केवलीतुल्य है।” उस समय हाथ से ग्रंथ लिखे जाते थे।
इस प्रकार पंडितजी के मार्ग दर्शन से पचासों प्रतिलिपिकार विविध शास्त्रों की प्रतियां करने के कार्य में निरन्तर संलग्न रहते थे। शास्त्रों की प्रतिलिपियाँ जैसे-जैसे पूर्ण होती जाती वैसे वैसे उन्हें बाहर भेजते रहते। यही कारण है कि देश के कोने कोने में प्रायः पुराने मंदिरों में स्थित शास्त्र भण्डारों में जयपुर का लिपिबद्ध कोई ना कोई शास्त्र अवश्य देखने में आ जाता है।
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