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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates 16 सारे देश में प्रतिष्ठित कर दिया था। क्योंकि इस समय जयपुर जहाँ जैन विद्वानों की नगरी कही जाती थी वहीं प्राचीन शास्त्रों की सरल लोक भाषाओं में टीकायें लिख लिखकर उन शास्त्रों तथा अन्य शास्त्रों की अगणित प्रतिलिपियाँ कराके आज जैसे आवागमन व अन्य साधनों के अभाव के बाद भी उन्हें देश देश के कोने-कोने में भेजा जाता रहा है। संतोष वृत्ति का अनुपम उदाहरण संतोष वृत्तिपूर्ण आजीविका की भी उनकी एक घटना प्रसिद्ध है। वे राजकीय सेवा में थे। आपको इस सेवा से आठ रुपया प्रति माह प्राप्त होते थे। इतने में उनकी आजीविका आराम से चलती थी। वे संतोष के पूरे धनी थे। उन्हे सांसारिक देह भोगों से विरक्ति और अध्यात्म रस के आस्वादन की लगन ही सदैव रहती थी और उसी अध्यात्म रस में लीन रहकर सदा प्रसन्नचित्त रहते थे और अन्य साधर्मियों को भी सदा इसी प्रकार रहने की प्रेरणा देते रहते थे, अतः छोटे बड़े सभी उनका सम्मान करते थे। जयपुर नरेश महाराज रामसिंहजी भी आपकी विद्वत्ता के बहुत प्रशंसक थे। उन्हें जब यह मालूम पड़ा कि चालीस वर्ष के लम्बे सेवाकाम के बाद में भी उनकी कोई वेतनवृद्धि नहीं हुई और अन्य लोगों की अब तक काफी वेतनवृद्धि के साथ उनके ओहदे भी बढ़ गए तो उन्होंने उन्हें सम्मानपूर्वक बुलाकर पूछा और उपेक्षा पर खेद व्यक्त किया और संतोष वृत्ति के कारण इसकी ओर कभी आपकी ओर से इस आशय का संकेत न होना आश्चर्यकारी है। आपकी इच्छित वेतनवृद्धि हो जाएगी-आप अपनी इच्छा व्यक्त कीजिए। वे चाहते तो इसका भरपूर लाभ उठा सकते थे। किन्तु आपको वेतनवृद्धि आदि के विषय में सोचने का भी अवसर ही नहीं आया – उन्होंने तो राजा से यह कहा हे राजन्। यदि आप मुझ पर प्रसन्न ही है तो मेरी वेतन वृद्धि की ओर किंचित् दृष्टि नहीं है। यदि आप कुछ देना ही चाहते हैं तो मेरी सेवा की प्रतिदिन की समयावधि के घंटे आधे कर दें तो मैं स्वाध्याय, पठन-पाठन लेखन तथा आत्म कल्याण हेतु चिंतन मनन में अधिक से अधिक समय लगा सकूँगा क्योंकि जितने कार्य की भावना रहती है उतना समयाभाव के कारण कर नहीं पाता-राजा ने सहर्ष स्वीकार करते हुए वेतन में भी दुगुनी वृद्धि करदी और समयावधि आधी करदी पर निर्लोभी संतोष वृत्ति पंडितजी ने वेतनवृद्धि से इनकार कर दिया। पंडितजी की इन भावनाओं को हम उनके ग्रन्थों की अन्त्य प्रशस्तियों में देख सकते हैं। उन्हें मौलिक सुख सुविधाओं के प्रति कभी आकर्षण ही नहीं हुआ। हे जिनवाणी भगवती, भुक्ति मुक्ति दातार । तेरे सेवनतें रहे, सुखमय नित्य अविकार ।। दु:ख दरिद्र जाण्यों नहीं, चाह न रही लगार । उज्ज्वल यश मय विस्तरयो, यो तेरो उपकार । - रत्नकरण्ड श्रावकाचार वचनिका Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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