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पंडितजी के अपनी आजीविका हेतु नौकरी करते हुए भी समयानुसार मंदिरजी में प्रवचन, विद्वानों के साथ तत्वचर्चा, मंदिर और अपने घर पर विद्यार्थियों और श्रावकों को जैन शास्त्रों का अध्यापन आदि कार्यों के साथ ही आस पास के क्षेत्रों से धार्मिक समारोहों पर विद्वत्ता की दृष्टि से विशेष आमन्त्रण पर वहाँ जाना और वहाँ के कार्यक्रमों में प्रमुखरूप से मार्ग दर्शन देकर सहयोग करना और मन्दिर आदि के निर्माण मे उन्हें भव्यता प्रदान करने में अपना मार्ग दर्शन देना-ये सब उनके दैनन्दिन कार्य होते थे-वे विधि-विधान और मंदिर प्रतिष्ठा के कार्यों में भी दक्ष थे।
जयपुर के तथा अन्य नगरों के विद्वान आपसे जहाँ प्रत्यक्ष और पत्राचार द्वारा शंकासमाधान करते थे, वहीं दूसरी ओर विद्वानों द्वारा लिखे ग्रंथ भी पंडितजी के पास संशोधनार्थ आते रहते थे -
विद्वत् वर्ग की प्रतिष्ठा के संरक्षक वे जयपुर की विद्वत मण्डली की प्रतिष्ठा के संरक्षक थे। निरन्तर प्रवचन शास्त्र स्वाध्याय तत्वचर्चा एवं परिश्रम पूर्वक तत्त्वाभ्यास ने आपके व्यक्तित्व को व्यापकला प्रदान की। आप प्राकृत-संस्कृत भाषा में पूर्वाचार्यो द्वारा लिखित जैन शास्त्रों के अच्छे विद्वान बन ही गए थे। इनके साथ ही साथ आपने अन्यान्य विद्याओं और अन्य दर्शनों के शास्त्रों का भी अच्छा अध्ययन कर लिया था। स्थापत्य कला में तो आपकी विशेष दक्षता और हिन्दी गद्य तो आपकी प्रमुख विधा थी ही किन्तु हिन्दी के साथ ही आवश्यकतानुसार संस्कृत में पद्य रचना भी वे कर लेते थे।
कहा जाता है कि एक बार जयपुर राज्य के पोथीखाने में दक्षिण भारत से दो विद्वान आए। उन्हें दो श्लोकों का अर्थ किसी से समझना था। अतः पोथीखाने के विद्वानों से उन श्लोकों का अर्थ पूछा किन्तु वहाँ स्थित अनेक अच्छे अच्छे विद्वान भी उनका सही अर्थ करने में असमर्थ रहे। यह चर्चा जयपुर नरेश तक भी पहुँची। नरेश को लगा कहीं ऐसा न हो कि इससे हमारे राज्य के विद्वानों की प्रतिष्ठा को धक्का लगे। अतः उन्होंने और अन्य विद्वानों ने मिलकर पं. सदासुखदासजी से इन श्लोकों का अर्थ करवाने का विचार किया। पंडितजी को ससम्मान बुलाकर उनसे अर्थ कहने को कहा गया। तब आपने श्लोक को पढ़कर कहा कि इनका अर्थ तो बिल्कुल सरल है। उन्होने उन श्लोकों का अर्थ बतलाकर सभी को चकित कर दिया। तब पंडितजी ने भी अपने दो अन्य श्लोकों का अर्थ उन दक्षिणी विद्वानों से पूछा किन्तु वे उनका अर्थ नहीं कर सके। इस तरह पंडित जी ने अद्भुत प्रतिभा और प्रत्युत्पन्नमतित्व का परिचय देकर जयपुर के विद्वानों की प्रतिष्ठा बढ़ायी।
इस प्रकार पं. सदासुखदासजी ने अपने पुरुषार्थ, गुरूओं की प्रेरणा और सान्निध्य के द्वारा विद्वत्ता की उस आदर्श और गौरवपूर्ण उपलब्धि और विरासत में अपने को सम्मिलित कर लिया जिसके सृजन में जयपुर के पूर्ववर्ती और समकालीन विद्वानों ने अपना त्यागपूर्ण योगदान देकर जयपुर को
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