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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates 14 । किन्तु इनमें कुछ ऐसे भी महान् व्यक्तित्व सम्पन्न पुरुष होते हैं, जो अपने अध्ययन अनुभव संगति तथा सही गलत की पहिचान के आधार पर कुल परम्परादि से प्राप्त पंथादि को छोड़कर यथार्थता के ग्रहण में किंचित् संकोच नहीं करते। ऐसे ही महान् व्यक्तित्व सम्पन्न पं. सदासुखदासजी थे, जिन्होंने उस समय जयपुर की विद्वत् मण्डली के सत्संग में दीर्घकाल तक स्वाध्याय आदि के बाद स्व-विवेक के आधार पर अपनी कुल परम्परा से प्राप्त बीसपंथ के स्थान पर शुद्ध पंथ के रूप में तेरहपंथ को सहज रूप में अपनाया और तदनुरूप प्रवचन आचार विचार चिन्तन तथा लेखन कार्य में प्रवृत्त रहे। तत्कालीन भट्टारकीय परम्परा और लोगों के अपने प्रति सत्याग्रह को देखते हुए उस समय के मतभेदों की कल्पना की जा सकती है। पं. सदासुखदासजी को अनेक लोगों, विशेषकर तत्कालीन जयपुर और अजमेर के भट्टारकों के विरोध का भी काफी सामना करना पड़ा पर इन्हें अपने गुरू पं. मन्नालालजी तथा गुरुणां गुरु पं. जयचन्द जी छाबडा का आचार-विचार एवं तत्त्व ज्ञान का साथ इन्हें सदा लुभाता रहा। वे अपने मनोबल से कभी विचलित नहीं हुए। और इस सबके बाद भी कभी वाद विवाद में नहीं उलझें क्योंकि वे इस मनुष्य पर्याय के प्रत्येक क्षण का मूल्य समझते थे। ये उन्हीं के शब्दों से मालूम होता है। “ इस मनुष्य जन्म की एक एक घड़ी कोटि धन में दुर्लभ है सो व्यर्थ ना जाए। " ऐसे ही वातावरण में जन्म लेकर पं. सदासुखदासजी ने पं. रायमल्लजी, पं. टोडरमलजी, जयचन्दजी छाबड़ा आदि विद्वानों का अनुकरण करके अपने जीवन को जैन धर्म, संस्कृति और साहित्य के लिए समर्पित कर दिया। शास्त्रों के तलस्पर्शी ज्ञान, जैन संस्कृति और स्थापत्य कला के प्रति विशेष अभिरूचि ने आपकी कीर्ति चारों ओर फैला दी । आपका घर अपने आप में एक अच्छा खासा विद्यालय सा प्रतीत होता था क्योंकि स्थानीय और बाहर के लोग आपसे पढ़ने, तथा शंका समाधान करने आते रहते थे। सदा प्रवचन, अध्ययन, मनन-चिंतन में लीन रहकर सीधी सादी सरल भाषा और भावों में अपने श्रोताओं को तीर्थंकरों की अमृतमयी वाणी प्रवचन के माध्यम से सुनाते तो श्रद्धालु श्रोता झूम उठते थे और कठिन विषयों को भी सरलतया हृदयंगम कर लेते थे। इनके प्रवचन इतने प्रभावक होते थे कि दूर-दूर से श्रोता आते थे। आपके प्रवचनों में वाद विवाद के कोई प्रसंग ही नहीं आते थे। निश्चय नय और व्यवहारनय का सुन्दर समन्वय आपके प्रवचनों की विशेषता थी । इसके साथ ही आप सत्य को प्रगट करने में भी किसी प्रकार का संकोच नहीं करते थे। इनके पत्रों से भी ज्ञात होता है कि अमीर गरीब सभी के प्रति आपका सदा समान व्यवहार रहा । आपके समकालीन जयपुर के तत्कालीन दीवान अमरचन्दजी आपसे बहुत प्रभावित थे और आपको प्रत्येक कार्य हेतु प्रोत्साहित भी करते रहते थे। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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