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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार १६४] अर्थ :- ये पाँच सामाजिक के अतिचार हैं – सामायिक करते समय वचनों के द्वारा संसार सम्बन्धी प्रवृत्ति करना वह वचन दुःप्रणिधान नाम का अतिचार है १; शरीर की संयम रहित चलायमानपने की चेष्टा करना वह काय दुःप्रणिधान नाम का अतिचार है २; मन में आर्त-रौद्र आदि चिंतवन करना वह मनो दुःप्रणिधान नाम का अतिचार हैं ३; सामायिक को उत्साह रहित निरादर से करना वह अनादर नाम का अतिचार है ४; सामायिक करते समय देव वंदन आदि के पाठ भूल जाना व कायोत्सर्ग आदि को भूल जाना वह अस्मरण नाम का अतिचार है ५। इस प्रकार अतिचार सहित सामायिक का वर्णन किया। अब प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत का स्वरूप कहनेवाला श्लोक कहते हैं : पर्वण्यष्टम्यां च ज्ञातव्यः प्रोषधोपवासस्तु । चतुरभ्यवहार्याणां प्रत्याख्यानं सदेच्छाभिः ।।१०६ ।। अर्थ :- पर्व जो अष्टमी और चतुर्दशी को दिन तथा रात्रि में चार प्रकार के भोजन का सम्यक् इच्छापूर्वक त्याग करना उसे प्रोषधोपवास जानना चाहिये। एक माह में दो अष्टमी और दो चतुर्दशी-ये चार अनादि से ही पर्व कहलाते हैं। इन पर्यों में गृहस्थ व्रत-संयम सहित ही रहता है। जो धर्मात्मा संयमी हैं वे तो सदाकाल सभी दिनों में व्रतों सहित ही रहते हैं। धर्म में अनुराग रखने वाला गृहस्थ एक माह में चार दिन तो सभी पाप के आरंभ और इंद्रियों के विषयों को त्याग करके, कषाय को नष्ट करके, व्रत शील, संयम सहित उपवास धारण करके, चार प्रकार के आहार का त्याग करके, संयम सहित रहता हैं, उसके प्रोषधोपवास व्रत जानना। अब प्रोषधोपवास का विशेष वर्णन करते हैं - सप्तमी के दिन तथा त्रयोदशी के दिन दोपहर में प्रथम तो एक बार भोजन-पानादि करके, समस्त आरंभ , व्यापार, सेवा, लेनदेन का त्याग करके, देह आदि में ममत्व त्याग करके; एकान्त घर में, जिन मंदिर में, एकान्त स्थान में, चैत्यालय, सूने घर, मठ आदि प्रोषधोपवास करने के स्थान में जाकर, समस्त विषयों का - कषायों का त्याग करके, मन-वचन-काय की प्रवृत्तियों को रोककर धर्मध्यान करके व स्वाध्याय करके, सप्तमी व त्रयोदशी के शेष आधे दिन को व्यतीत करे। पश्चात् संध्याकाल संबंधी देव वंदन आदि करके रात्रि की धर्मकथा व जिनेन्द्र भक्ति, स्तवन आदि करके रात्रि व्यतीत करे व धर्म ध्यान करता हुआ शुद्ध समाधि पूर्वक थोड़ी देर को प्रमाद दूर करके रात्रि व्यतीत करे। अष्टमी, चतुर्दशी के प्रातःकाल में सामायिक वंदना आदि करके तथा प्रासुक द्रव्यों से पूजन करके, शास्त्रों का अभ्यास करके, भावनाओं का चिंतवन करके, धर्मध्यान सहित अष्टमी चतुर्दशी का दिन और पूरी रात्रि को व्यतीत करके, नवमी व पूर्णिमा के प्रभात संबंधी कर्म-क्रिया करके. वंदना पजनादि करके. उत्तम-मध्यम-जघन्य पात्र में से किसी भी पात्र का लाभ हो तो, उसे भोजन कराकर स्वयं पारणा (भोजन) करे। इस प्रकार सोलह प्रहर का समय जो धर्मसहित व्यतीत करता है, उसके उत्कृष्ट प्रोषधोपवास होता है। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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