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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
अर्थ :- जो प्रवीण पुरुष हैं वे एक वर्ष, छह माह, चार माह, दो माह, एक पक्ष , एक नक्षत्र इस प्रकार देशावकाशिक व्रत में काल की मर्यादा कहते हैं। अब देशावकाशिक व्रत में महाव्रतपना कहनेवाला श्लोक कहते हैं :
सीमान्तानां परतः स्थूलेतरपञ्चपापसंत्यागात्।
देशावकाशिकेन च महाव्रतानि प्रसाध्यन्ते ।।९५।। अर्थ :- प्रतिदिन जितने क्षेत्र का परिमाण किया हो उसके बाहर स्थूल तथा सूक्ष्म जो पाँच पाप हैं, उनका त्याग करने से देशावकाशिक व्रत करने से ही महाव्रतों की सिद्धि प्राप्त हो जाती है। ____ भावार्थ :- क्षेत्र की मर्यादा के बाहर सभी पाँचों पापों का पूर्ण त्याग कर देने से अणुव्रत ही महाव्रत के समान हो जाते हैं। अब देशावकाशिक व्रत के पांच अतिचार कहनेवाला श्लोक कहते हैं :
प्रेषणशब्दानयनं रूपाभिव्यक्तिः पुद्गलक्षेपो ।
देशावकाशिकस्य व्यपदिश्यन्तेऽत्ययाः पञ्च ।।९६ ।। अर्थ :- जितने क्षेत्र की मर्यादा की थी उसके बाहर किसी प्रयोजन के लिये अपने नौकर को, मित्र को, पुत्र को या किसी अन्य को कहना कि तुम वहाँ जाकर वह काम कर दो - ऐसा कहना वह प्रेषण नाम का अतिचार है ।। ___मर्यादा के बाहर क्षेत्र में रहनेवाले से बातें करना, तथा शब्दों द्वारा इशारे से समझा देना कि अमुक काम कर दो – वह शब्द नाम का अतिचार है ।२।
मर्यादा के बाहर के क्षेत्र से किसी को बुलाना या वस्त्र आदि आवश्यक इच्छित पदार्थ को शब्दों से कहकर मंगवा लेना, वह आनयन नाम का अतिचार है ।।
मर्यादा के बाहर के क्षेत्र में रहनेवालों को इशारे से समझाने के लिये अपना रूप दिखाना, वह रूपाभिव्यक्ति नाम का अतिचार है ।४।
मर्यादा के बाहर के क्षेत्र में वस्त्रादि द्वारा, कंकरी, पत्थर, लकड़ी आदि फेंककर अपनी उपस्थिति जताना, वह पुद्गलक्षेप नाम का अतिचार है ।५।
इस प्रकार देशावकाशिक व्रत के ये पाँच अतिचार त्यागने योग्य हैं। अब सामायिक शिक्षाव्रत का स्वरूप कहते हैं :
आसमयमुक्तिमुक्तं पञ्चाघानामशेषभावेन ।
सर्वत्र च सामयिकाः सामयिकं नाम शंसन्ति ।।१७।। अर्थ :- परम साम्यभाव को प्राप्त जो गणधर देव हैं वे सामायिक की प्रगट प्रशंसा करते हैं। मर्यादा के बाहर के क्षेत्र में तथा मर्यादा के भीतर के क्षेत्र में सर्वत्र ही समस्त मन, वचन, काय तथा
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