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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates पंचम - सम्यग्दर्शन अधिकार] [१५७ कृत कारित, अनुमोदना द्वारा कार्य की मर्यादा करके सभी पाँच पापों का पूर्ण त्याग करना सामायिक कहलाता है। __ भावार्थ :- समस्त पाँच पापों का काल की मर्यादा लेकर सम्पूर्ण रूप से त्याग करना वह सामायिक है। अब सामायिक में पाँच पापों का त्याग करके किस प्रकार रहना वह श्लोक द्वारा कहते हैं : मूर्धरुहमुष्टिवासो बन्धं पर्यंकबन्धनं चापि । स्थानमुपवेशनं वा समयं जानन्ति समयज्ञाः ।।१८।। अर्थ :- समयज्ञ अर्थात् जो परमागम के जानने वाले हैं वे कहते हैं कि शिर के केशों को अच्छी तरह बांध कर, मुष्टिबंधन, वस्त्रबंधन, आसनबंधन करके किसी एकांत स्थान में खड़े रहकर या बैठकर, राग-द्वेष रहित शुद्ध आत्मा को काल की मर्यादा लेकर केवल जानता ही रहे। ___ भावार्थ :- सामायिक करनेवाला काल की मर्यादा लेकर समस्त पापों को त्यागकर खड़े होकर या पर्यंक आसन में बैठे । पर्यंक आसन में बैठकर अपने बांये हाथ की हथेली पर दांये हाथ की हथेली को फैलाकर रखे। अपने मस्तक के केश, पहिने हुए वस्त्र यदि उड़ रहे हों तो उन्हें समेटकर उनमें गांठ लगाकर बांध ले। बैठकर या खड़े होकर सामायिक करना चाहिये। अब सामायिक करने योग्य स्थान को श्लोक द्वारा कहते हैं - एकान्ते सामयिकं निाक्षेपे वनेषु वास्तुषु च । चैत्यालयेषु वापि च परिचेतव्यं प्रसन्नधियाः ।।१९।। अर्थ :- ऐसा विक्षेप रहित एकान्त स्थान हो, वन हो, बाग हो, मकान हो, चैत्यालय हो वहाँ पर प्रसन्न चित्त से शुद्धात्मा से परिचय करना चाहिये। ___ भावार्थ :- जिस स्थान में चित्त को विक्षेप करने के कारण नहीं हों; बहुत असंयमी जनों का आना-जाना नहीं हो; अनेक लोगों द्वारा वाद-विवाद करके कोलाहल नहीं किया जा रहा हो; स्त्रियों तथा नपुंसकों का आगमन-प्रचार नहीं हो; नजदीक में गीत, वादित्रों आदि का प्रचार नहीं हो रहा हो; तिर्यंचों का, पक्षियों का संचार नहीं हो; बहुत शीत, उष्णता, प्रचंड पवन, वर्षा की बाधा नहीं हो; डांस, मच्छर, मक्खी, कीड़ा, कीड़ी, जुआं, मधुमक्खी, ततैया, सर्प, बिच्छू, कनसला इत्यादि जीवों द्वारा बाधा नहीं दी जा सके; ऐसे विक्षेप रहित एकांत स्थान में, वह वन हो, जीर्ण बाग का मकान हो, शून्य गृह हो, चैत्यालय हो, धर्मात्माजनों का प्रोषधोपवास करने का स्थान हो – ऐसे एकांत स्थान में प्रसन्नचित होकर सामायिक में अपने शुद्ध आत्मा से परिचय करना चाहिये। अब सामायिक की और भी सामग्री है उसे कहनेवाले श्लोक कहते हैं : व्यापारवैमनस्याद्विनिवृत्त्यामन्तरात्मविनिवृत्त्या । सामयिकं बध्नीयादुपवासे चैक भुक्ते वा ।।१००।। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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