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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार तथा कदाचित् सुदेव-सुगुरु-सुशास्त्र का भी निमित्त बन जाये तो वहाँ उनके निश्चय उपदेश का तो श्रद्धान | करता, व्यवहार श्रद्धान से अतत्त्व श्रद्धानी ही रहता है। वहां मन्द कषाय हो तथा विषय की इच्छा घटे तो थोड़ा दुःखी होता है, परन्तु फिर जैसा का तैसा हो जाता है।
___ - मो. मा. प्र.५२ प्रमादी रहने में तो धमत् है नहीं। प्रमाद से सुखी रहे वहाँ तो पाप ही होता है; इसलिये धर्म के लिये उद्यम करना ही योग्य है।
-मो. मा. प्र. २९१ मोक्षमार्ग की प्रयोजनभूत मूल वस्तुएं क्या क्या हैं ? वह बतलाते हैं :- जिनधर्म-जिनमत, देव-कुदेव, गुरु-कुगुरु, शास्त्र-कुशास्त्र, धर्म-कुधर्म-अधर्म, हेय-ज्ञेय-उपादेय, संसार-मोक्ष, जीव-अजीव, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध मोक्ष, जीव, पुदगल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल, द्रव्य, गुण, पर्याय सामान्यगुण और विशेषगुण।
- सत्ता स्वरूप ४ गगन मंडल में अधबीच कुआ, वहां है अभी का वासा । सुगुरा होय सो भर-भर पीवै, निगुरा जावे प्यासा ।।१।। गगन मंडल में गौआ बियानी, बसुधा दूध जमाया। माखन था से बिरला रे! पाया, जगत छांछ भरमाया ।।२।। आतम अनुभव रस कथा, प्याला, पियो न जाय । मतवाला तो बहि पड़े, ज्ञानी पड़े, पचाय ।।३।।
- श्री कानजी स्वामी विषय सुख विरक्त, शुद्ध तत्वानुरक्त, तप में तल्लीन चित्त, श्रुति समूह मस्त। गुणमणिगण युक्त, सर्व संकल्प मुक्त , कहो मुक्तिसुंदरी के, क्यों न होंगे वे कन्त।
पद्मप्रभमलधारी देव चाम चक्षुसों सब मती, चितवन करत निवेर । ज्ञान नैन सौं जैन ही, जोवत इतनो फेर ॥१॥ जैनी जाने जैन नय, जिन जिन जानी जैन। जेजे जैनी जैन जन, जाने निज निज नैन ।।२।।
- ब्रह्म विलास उपज्यो मोह विकल्प से, समस्त यह संसार, अंतमुर्ख अवलोकते, विलय होत नहिं वार ।
- श्रीमद् रायचन्द्र जी पीतो सुधा स्वभाव की, जी तो कहूं सुनाय । तू रीत्यो क्यों जात है, वीत्यो नरभव जाय ।।
- भैया भगवतीदास जी
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