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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates चतुर्थ - सम्यग्दर्शन अधिकार ]
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तत्त्वविचार की महिमा इस जीव को सुख इष्ट है, वह सुख सर्व कर्मों के नाश से होता, कर्मों का नाश चारित्र से होता है, और वह चरित्र प्रथम अतिचार रहित सम्यक्त्व हो तथा चारों अनुयोंगों के द्वार मोक्षमार्ग में प्रयोजनभूत वस्तु का संशय विपर्यय और अनध्यवसाय आदि रहित यथार्थ ज्ञान हो तब होता है। तब प्रमाद, मद आदि सब दूर हो जाते है
और शास्त्रों का श्रवण, विचारणा, आम्नाय, अनुप्रेक्षा, सहित अभ्यास करता है। इसलिये सर्वकल्याण का मूलकारण एक आगम का यथार्थ अभ्यास है। इसलिये जो पुरुष अपने हित के इच्छुक हैं उनको सर्वप्रथम ही तत्त्वनिर्णयरूप कार्य करना योग्य है।
__- सत्ता स्वरूप १: पं. भागचन्दजी छाजेड़ देखो तत्त्वविचार की महिमा! तत्त्व विचार रहित देवादिक की प्रतीति करे, बहुत शास्त्रों का अभ्यास करे, व्रतादिक पाले, तपश्चरणादिक करे, उसको तो सम्यक्त्व होने का अधिकार नहीं; और तत्त्व विचारवाला इनके बिना भी सम्यक्त्व का अधिकारी होता है।
-मोक्षमार्ग प्रकाशक २६० यदि इस अवसर में भी तत्त्वनिर्णय करने का पुरुषार्थ न करे, प्रमाद से काल गंवाये या तो मन्द-रागादि सहित विषय-कषायों के कार्यों में ही प्रवर्ते, या व्यवहार धर्म कार्यों में प्रवर्ते, तब अवसर तो चला जायेगा और संसार में ही भ्रमण होगा।
तथा इस अवसर में जो जीव पुरुषार्थ से तत्त्वनिर्णय करने में उपयोग का अभ्यास रखे, उनके विशुद्धता बढ़ेगी, उससे कर्मों की शक्तिहीन होगी, कुछ काल में अपने आप दर्शनमोह का उपशम होगा, तब तत्त्वों की यथावत् प्रतीति आयेगी। सो इसका तो कर्तव्य तत्त्वनिर्णय का अभ्यास ही है। इसी से दर्शनमोह का उपशम तो स्वयमेव होता है; उसमें जीव का कर्तव्य कुछ भी नहीं है।
-मो. मा. प्र.३१२ इसलिये अवसर चूकना योग्य नहीं है। अब सर्व प्रकार से अवसर आया है, ऐसा अवसर प्राप्त करना कठिन है। इसलिये श्री गुरु दयालु होकर मोक्षमार्ग का उपदेश देते हैं, उसमें भव्य जीवों को प्रवृति करना।
-मो.मा.प्र.३१३ जिसे आत्मरुचि हुई हो - वह आत्मरुचि के धारक तीर्थङ्कर आदि के पुराणों को भी जाने तथा आत्मा के विशेष जानने के लिये गुणस्थानादिक को भी जाने। तथा आत्म आचरण में जो व्रतादिक साधन हैं उनको भी हितरूप माने तथा आत्मा के स्वरूप को भी पहिचाने। इसलिये चारों अनुयोग ही कार्यकारी हैं। - मो. मा. प्र. २०१
यदि ते सच्ची दृष्टि हुई है तो सभी जैन शास्त्र कार्यकारी है। वहाँ भी मुख्यतः अध्यात्म-शास्त्रों में तो आत्मस्वरूप का मुख्य कथन है। सो सम्यग्दृष्टि होने पर आत्म स्वरूप का निर्णय तो हो चुका, अब तो ज्ञान की निर्मलता के अर्थ व उपयोग को मंद कषायरूप रखने के अर्थ अन्य शास्त्रों का अभ्यास मुख्य चाहिये। तथा आत्म स्वरूप का निर्णय हुआ हैं, उसे स्पष्ट रखने के अर्थ अध्यात्म शास्त्रों का भी अभ्यास चाहिये, परन्तु अन्य शास्त्रों में अरुचि तो नहीं होना चाहिये। जिसको अन्य शास्त्रों की अरुचि है उसे अध्यात्म की रुचि सच्ची नही है।
-मो. मा.प्र. २०० मोह के उदय से मिथ्यात्व और कषायभाव होते हैं, सो ये ही संसार के मूल कारण हैं। इन्हीं से वर्तमान काल में जीव दु:खी है, और आगामी कर्म बन्ध के भी कारण ये ही है।
- मो. मा. प्र. ४१ ___ तथा संज्ञी पंचेन्द्रिय कदाचित् तत्त्व निश्चय करने का उपाय विचारे, वहाँ अभाग्य से कुदेव-कुगुरु-कुशास्त्र का निमित्त बने तो अतत्त्व श्रद्धान पुष्ट हो जाता है। वह तो जानता है कि इनसे मेरा भला होगा परन्तु वे ऐसा उपाय करते हैं जिससे यह अचेत हो जाय।
- मो. मा. प्र.५१
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