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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
१५२]
परिशिष्ट - ४
कुन्दकुन्द (शतक) वाणी अरहंत सिद्धाचार्य पाठक साधु हैं परमेष्ठि गण। सब आतमा की अवस्थाएँ आतमा ही हैं शरण ।।२।। सम्यक् सुदर्शन ज्ञान तप समभाव सम्यक् आचरण। अब आतमा की अवस्थाएँ आतमा ही हैं शरण ।।३।। मैं एक दर्शन-ज्ञानमय नित शुद्ध हूँ रूपी नहीं । ये अन्य सब परद्रव्य किंचित् मात्र भी मेरे नहीं ।।६।। चैतन्य गुणमय आतमा अव्यक्त अरस अरूप है। जानो अलिंगग्रहण इसे यह अनिर्दिष्ट अशब्द है ।।७।। जो जानता मैं शुद्ध हूँ वह शुद्धता को प्राप्त हो। जो जानता अविशुद्ध वह अविशुद्धता को प्राप्त हो।।९।। जो भव्यजन संसार-सागर पार होना चाहते । वे कर्म ईंधन-दहन जिन शुद्धातमा को ध्यावते ।।१४।। दर्शन रहित यदि वेष हो चारित्र विरहित ज्ञान हो। संयम रहित तप निरर्थक आकाश-कुसुम समान हो।।१९।। मुक्ति गये या जायेंगे माहात्म्य है सम्यक्त्व का। यह जान लो हे भव्यजन! इससे अधिक अब कहें क्या ।।६।। सद्धर्म का है मूल दर्शन जिनवरेन्द्रों ने कहा । हे कानवालो सुनो! दर्शन-हीन वंदन योग्य ना ।।३५ ।। डोरा सहित सुइ नहीं खोती गिरे चाहे वन-भवन। संसार-सागर पार हों जिनसूत्र के ज्ञायक श्रमण ।।६३ ।। तत्त्वार्थ को जो जानते प्रत्यक्ष या निजशास्त्र से। दृगमोह-क्षय हो इसलिये स्वाध्याय करना चाहिये।।६४।। व्रत सहित पूजा आदि सब जिनधर्म में सत्कर्म हैं। दृगमोह-क्षोम विहिन निज परिणाम आतमधर्म हैं ।।६८ ।। चारित्र ही बस धर्म है वह धर्म समताभाव है। दृगमोह-क्षोभ विहिन निज परिणाम समताभाव हैं।।६९ ।। मिथ्यात्व का परित्याग कर हो नग्न पहले भाव से। आज्ञा यही जिनदेव की फिर नग्न होवे द्रव्य से ।।७०।। वस्त्रादि सब परित्याग कोडाकोड़ी वर्षों तप करें। पर भाव बिन ना सिद्धि हो सत्यार्थ यह जिनवर कहें।७६ ।। ज्यों लोह बेड़ी बाँधती त्यों स्वर्ण की भी बाँधती । इस भाँति शुभ-अशुभ दोनों कर्म बेड़ी बांधती ।।८७।। यदि कोई ईर्ष्याभाव से निन्दा करे जिनमार्ग की। छोड़ो न भक्ती वचन सुन इस वीतरागी मार्ग की ।।१६।। द्रव्य गुण पर्याय से जो जानते अरहंत को। वे जानते जिन आतमा दगमोह उनका नाश हो ।।९९ ।। है ज्ञान दर्शन शुद्धता निज शुद्धता श्रामण्य है । हो शुद्ध को निवारण शत-शत बार उनको नमन है ।।१०१।।
दर्शन - पाठ दर्शन श्रीदेवाधिदेव का, दर्शन पाप विनाशन है। दर्शन है सोपान स्वर्ग का, और मोक्ष का साधन है।।१।। श्री जिनेन्द्र के दर्शन औ, निर्ग्रन्थ साधु के वन्दन से। अधिक देर अघ नहीं रहें, जल छिद्र सहित कर में जैसे।।२।। वीतराग-मुख के दर्शन की, पद्मराग सम शांत-प्रभा। जन्म-जन्म के पातक क्षण में, दर्शन से हों शांत विदा।।३।। दर्शन श्री जिनदेव सूर्य, संसार-तिमिर का करता नाश। बोध-प्रदाता चित्त पद्म को, सकल अर्थ का करे प्रकाश।।४।। दर्शन श्री जिनेन्द्रचन्द्र, का, सद्धर्मामृत बरसाता। जन्मदाह को करे शांत, औ सुख वारिधि को विकसाता ।।५।। सकल तत्त्व के प्रतिपादक सम्यक्त्वादि गुण के सागर। शांत दिगम्बर रूप, नD, देवाधिदेव तुमको जिनवर ।।६।। चिदानन्दमय एकरूप, वंदन जिनेन्द्र परमात्मा को। हो प्रकाश परमात्म नित्य, मम नमस्कार सिद्धात्मा को ।।७।। अन्य शरण कोई न जगत में, तुम्हीं शरण मुझको स्वामी। करुण भाव से रक्षा करिये, हे जिनेश अन्तर्यामी।।८।। रक्षक नहीं शरण कोई नहीं तीन जगत में दुखत्राता। वीतराग प्रभु सा न देव है, हआ न होग दिन-दिन पाऊँ जिनवरभक्ति, जिनवरभक्ति, जिनवरभक्ति। सदा मिले वह सदा मिले, जब तक न मिले मुझको मुक्ति ।।१०।। नहीं चाहता जिनधर्म बिना, मैं चक्रवर्ती होना। नहीं अखरता जैनधर्म से सहित, दरिद्रों का होना।।११।। जन्म-जन्म के किये पाप औ बन्धन कोटि-कोटि भव के। जन्म-मृत्यु औ जरा रोग, सब कट जाते जिनदर्शन से ।।१२।। आज 'युगल दृग हुए सफल, तुम चरण-कमल से हे प्रभुवर। हे त्रिलोक के तिलक! आग लगता भवसागर चुल्लू भर ।।१३।।
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