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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates चतुर्थ - सम्यग्दर्शन अधिकार] [१४९ विपदा में दृढ़ता धारण करो - यदि कभी प्रबल कर्म के उदय से यह मनुष्य जिसने व्रत लिया है किसी कुदेश में पराधीनता में जा पड़े, प्रबल बुढ़ापा आ जाने से उठने-बैठने-चलने की सामर्थ्य घट जाये, कोई स्त्री-पुत्र आदि सहायक न रहे, नेत्रों से अंधा हो जाये, बहिरा हो जाये, लम्बा रोग आ जाये, बंदीखाने में म्लेच्छ आदि के अधीन हो जाये, दुष्ट म्लेच्छ आदि अपना भोजन जल आदि बिगाड़ दें, जबरदस्ती सब के साथ शामिल बैठाकर खानपान करावें, ऐसे-ऐसे उपद्रव आ जायें तो वहाँ अपने अंतरंग में तो व्रत संयम नहीं छोड़ना तथा बाहर श्री पंच नमस्कार मंत्र का ध्यान करते रहने पर ही वह शुद्ध है; क्योंकि बाह्य देह आदि पवित्र रहे या अपवित्र हो जाये, मल-मूत्र-रुधिर आदि से लिप्त हो जाये, समस्त कुत्सित ग्लानि योग्य अवस्था को प्राप्त होनेवाला पुरुष भी यदि परमात्मा को स्मरण करता है तो वह बाहर से भी पवित्र है और अंदर से भी पवित्र है। देह तो सप्तधातुमय मल-मूत्रादि की भरी हुई है तथा रोगों का स्थान है। एक क्षण में सम्पूर्ण शरीर में कोढ़ झरने लग जाता है, हजारों फोड़ा-फुन्सी, गुमड़ी, खून, पीव बहने लगती है, मल-मूत्र अपने आप बहने लगता है, ऐसी दशा में बाह्य व्यवहार शुद्धता कैसे हो; तथा निर्धन, एकाकी का सहायक कौन होता है ? __धर्मात्मा पुरुष तो अशुभ कर्म के उदय मैं ग्लानि त्याग करके धीरता धारण करके आर्त परिणामों द्वारा संक्लेश नहीं करते हैं। वे तो अशुभ कर्म के उदय को निर्जरा मानकर, अंतरंग वीतरागता द्वारा संसार, शरीर, भोगों का स्वरूप चिन्तवन करते हुए, बारह भावना भाते हुए, कर्म के उदय से अपने आत्मस्वरूप को भिन्न, ज्ञाता-द्रष्टा-शुद्ध चिन्तवन करते हुए, वीतरागता द्वारा ही राग, द्वेष, हर्ष, विषाद, ग्लानि, भय, लोभ, ममता रूप आत्मा के मैल को धोकर अपने को शुद्ध मानते हैं, उन्हीं की सम्पूर्ण शुद्धता होती है। अब भोगोपभोग परिमाण व्रत के दो भेद कहनेवाला श्लोक कहते हैं : नियमो यमश्च विहितौ द्वेधा भोगोपभोगसंहारे । नियम: परिमितकालो यावज्जीवं यमो ध्रियते ।।८७।। अर्थ :- भगवान भोगोपभोग घटाने से नियम और यम ऐसा दो प्रकार का भोगोपभोग परिमाणव्रत कहा है। काल की मर्यादा लेकर त्याग करने को नियम कहा है, तथा जब तक इस देह में जीवन है तब तक (जीवन पर्यंत के लिये ) त्याग करने को यम कहा जाता है। भावार्थ :- जो एक बार भोगने में आवें ऐसे आहार आदि तो भोग हैं, तथा जो बारम्बार भोगने में आवे ऐसे वस्त्र-आभरण आदि उपभोग हैं। इन भोग-उपभोगों का त्याग यम और नियम से दो प्रकार का है। इनमें जिस भोग-उपभोग का एक मुहूर्त, दो मुहूर्त, एक पहर , दो पहर, एक दिन, दो दिन, पाँच दिन, पंद्रह दिन, एक माह, दो माह, चार माह , छह माह , एक वर्ष, दो वर्ष इत्यादि समय की मर्यादा पूर्वक त्याग करना वह नियम नाम का परिमाण है। जो पदार्थ अपने लिये उपयोगी हो. शद्ध हो उसका त्याग तो काल की मर्यादा लेकर ही नियम रूप त्याग करना चाहिये। जो पदार्थ Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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