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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates १४८] [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार दान लेना, अभक्ष्य-भक्षण करना, इत्यादि सभी नीचकर्मों में प्रवृत्ति रखना इंद्रियों के विषयों की लालसा से ही होती है। विचारकर देखो! भोगभूमि के तथा देवलोक के नाना प्रकार के भोगों से भी जब तृप्ति नहीं हुई, तब ये थोड़ी सी जिा का स्पर्श मात्र का स्वाद तो बहुत थोड़े समय का है; भोजन को निगलने के बाद नहीं है, तथा उसके पहिले भी नहीं है, उससे तृप्ति कैसे होगी? इस प्रकार तष्णा को बढानेवाले आहार में लब्धता छोडकर, सभी इंद्रियों को जीतकर रस-नीरस भोजन की कर्म ने जैसी विधि मिलाई है उसी में सन्तोष करके, अभक्ष्यों का त्याग करके, देह के धारण मात्र के लिये जो भोजन करता है वह सभी पापों से रहित होकर देवलोक का पात्र होता है। परिणामों की सामर्थ्य के अनुसार व्रत लें :- यहाँ ऐसा जानना कि - जो मनुष्य भोगोपभोग परिमाण व्रत ले उसे परिणामों की दृढ़ता देख लेना चाहिये कि मेरा राग घटा है, कितना राग अभी नहीं घटा है। यह भी सामर्थ्य देख ले कि जितना मैं त्याग कर रहा हूँ उसके अनुसार मेरा शरीर तथा मेरे परिणामों में उसका निर्वाह करने की सामर्थ्य है या नहीं है ? इस प्रकार विचार करके व्रत धारण करना चाहिये। देश की रीति निर्वाह योग्य देखना चाहिये। अपना कोई सहायक है या कि त्याग-व्रत को बिगाड़ने वाला है - ऐसा भी विचार कर लेना चाहिये। अपने शरीर का निरोगपना देखना चाहिये, भोजन आदि मिलने या न मिलने का संयोग देखना चाहिये, भोजन मेरे अधीन है या पराधीन है यह भी देखना चाहिये। मेरे द्वारा इन व्रतों को ले लेने पर हमारे तथा स्त्री-पुरुष, माता-पिता-स्वामी इत्यादि के परिणामों में संक्लेश होगा या नहीं होगा ? अपना स्वाधीनपना-पराधीनपना जानकर जिस प्रकार परिणामों की उज्ज्वलता सहित व्रत का निर्वाह हो इस प्रकार नियमरूप त्याग करना चाहिये। यावज्जीवन त्यागने योग्य : यम अर्थात् जब तक जीवन शेष है तब तक के लिये त्याग करना। कितने ही पदार्थ तो यावज्जीवन ही त्यागने योग्य है; जिनमें प्रकट त्रसजीवों का घात होता है, अंनत जीवों का घात होता है, अपने कुल में सेवन करने योग्य नहीं है, नशा लाने वाले हैं, तथा मद्य-मांस, मधु, माखन, मदिरा, अचार, महाविकृति, रात्रि में भोजन करना, जुआ आदि सातों व्यसन, बिना दिया पर धन का ग्रहण, त्रसहिंसा, स्थूल असत्य, अन्याय का परिग्रह, बिना छना जल, अनर्थदण्ड ये तो यावज्जीवन ही त्यागने योग्य हैं; इनमें नियम क्या करना ? ये तो महान् अनीति है। इनका त्याग करने से शरीर पर कुछ क्लेश, भार, दुःख नहीं आता है, अपयश भी नहीं होता है। इनका त्याग करने में धन खर्च नहीं होता है, बल नहीं चाहिये, स्वामी तथा स्त्री-पुत्र, माता-पिता, कुटुम्ब आदि की सहायता नहीं चाहिये, किसी से पूछने या किसी को बताने का भी कोई काम नहीं है, अपने परिणामों के ही आधीन है। इनका त्याग करने में किसी प्रकार से शीत, उष्ण, क्षुधा, तृषा आदि की बाधा-पीड़ा नहीं भोगना पड़ती है, स्वाधीन है, परिणामों तथा देह में सुख करने वाला है। इसलिये दुर्लभ सामग्री मनुष्यजन्म, जैनकुल, जिनधर्म पाकर भोगोपभोग परिमाण करना श्रेष्ठ है। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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