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_Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates चतुर्थ - सम्यग्दर्शन अधिकार ]
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धर्मशाला-होटल के दुकानदार का पीतल का, कांसे का, लोहे का बर्तन भोजन करने— बनाने के लिये लेना योग्य नहीं है। वह तो सभी मांसभक्षी दुराचारियों को भी वे ही बर्तन दे देता है। इसलिये अपने आचरण की यदि उज्ज्वलता बनाये रखना चाहते हो तो तीन-चार बर्तन अपने पास में रखकर विदेश में बाहर गमन के लिये निकलना चाहिये। वहाँ पर दमड़ी (चौथाई पैसा) अधिक देकर आटा तैयार कराकर खाना चाहिये । यदि विधि अनुसार आटा तैयार हुआ नहीं प्राप्त हो सके तो खिचड़ी - घुंघरी बनाकर खा लेना चाहिये।
अभक्ष्य त्याग :- बाजार की मिठाई, लाडू, बरफी, घेवर आदि नहीं खाना चाहिये । इनका आटे का, घी का जल का कुछ भी प्रामाणिकपना नहीं है, परिमाण नहीं है, मर्यादा नहीं है। लोभी तथा निंद्यकर्मियों के कोई आचार-विचार का विवेक नहीं होता है । मैदा का खमीरा बनाकर सड़ाते हैं, खट्टा होते ही उसमें अनंतानंत जीव उत्पन्न होने लगते हैं। फिर कढ़ाई के गर्म घी या तेल में पकाते हैं, भूनते हैं, जलेबी बनाते हैं, साबुनी ( फैनी) बनाते हैं जो खाने के योग्य ही नहीं हैं। दही में खांड बूरा मिलाकर बहुत समय तक नहीं रखना चाहिये, दो मुहूर्त में ही खाना योग्य है। अपने पुत्र, भाई, मित्रादि के साथ शामिल होकर एक ही बर्तन में भोजन करना उचित नहीं है।
मनुष्यों का, कुत्ता, बिल्ली इत्यादि का जूठा भोजन त्यागना योग्य है। गधा, गाय, भैंस तिर्यंचों के जूठे जल इत्यादि में स्नान नहीं करो; पीना तो कभी भी नहीं चाहिये। अन्न का, खांड का, लपसी का बनाया हुआ मनुष्य - तिर्यंचों के आकार को नहीं खाओ। देवी, दिहाड़ी, व्यन्तरों की पूजा के लिये संकल्प पूर्वक बनाया गया, चढ़ाया गया भोजन त्यागने योग्य है। मांस भक्षियों के बर्तन में भोजन भक्षण नहीं करना चाहिये। अपने बर्तन मांसभक्षी को मांगने पर भी नहीं दो । नाई के बर्तन के पानी से बाल नहीं बनवाओ। रजस्वला का छुआ बर्तन भोजन के योग्य नहीं है।
अनुपसेव्य त्याग : अनुपसेव्य जानकर विकाररूप वस्त्र, आभरण आदि नहीं पहिनना चाहिये। जो उत्तम कुल के योग्य नहीं ऐसे नीच कुल के पहिनावे, वेश्या तथा विट् पुरुषों के पहिनावे, सिपाहियों तथा म्लेच्छ मुसलमानों के पहिनावे, स्वामी, योगी, फकीर, भांड़ों के पहिनने के वस्त्र आभरण परिणाम बिगाड़ते हैं, इसलिये नहीं पहिनना चाहिये। अपने आप तथा दूसरे में विकार पैदा नहीं करने वाले, अपने पद के योग्य, अवस्था के योग्य, लोक से अविरुद्ध ऐसे आभरण, वस्त्र, भेष धारण करना ही उचित है।
बहुत कहने से क्या है ? संक्षेप में इतना जान लेना कि समस्त संसार के परिभ्रमण का कारण पांच इंद्रियों के विषयों में लालसा है । पाँच इंद्रियों में भी जिह्वा इंद्रिय तथा उपस्थ इंद्रिय इन दो इंद्रियों की लालसा इसलोक तथा परलोक दोनों को ही बिगाड़नेवाली है। इन दो इंद्रियों के विषयों की लोलुपता जिन्हें अधिक है वे मनुष्य जन्म में भी पशु के समान हैं। पशुयोनि में भी इन्हीं दो इंद्रियों के विषयों की चाह से परस्पर में लड़-लड़कर मर जाते हैं, मार डालते हैं, मारकर खा जाते हैं। मनुष्य जन्म में भी कलह करना, मरना, मारना, निर्लज्ज होना, जूठन खाना, दीनता कहना, पुण्य
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