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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates १४६] [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार एक करोड़ कसाइयों की हिंसा के बराबर एक अत्तार की दुकान की दवाइयों में हिंसा है। यहाँ अपने भारत देश में राजा लोगों ने हिन्दु धर्म तथा भारतीय संस्कृति की रक्षा के लिये क्रम संवत १८२२ तक तो अत्तारों का बसना तथा दकान करना नहीं होने दिया। फिर काल के निमित्त से पाप की प्रवृत्ति फैल गई। अब उत्तम कुलवाले भी इन अर्क आदि का सेवन करने लगे हैं। मांस भक्षी मुसलमान की जूंठन तथा शराब आदि का खाना-पीना करने पर अब ब्राह्मणपना, महाजनपना, वैश्यपना कहां रह गया है ? सभी कुल आचरण-भ्रष्ट हो गये हैं। ____ आचरण-भ्रष्ट हो जाने से अभक्ष्य भक्षण करने से ही लोगों की बुद्धि सत्यार्थ धर्म से रहित हो गई है। अत्तारों की औषधि से ही रोग मिटते हैं, ऐसा नियम नहीं है। अत्तारों का अर्क पीकर धर्मभ्रष्ट होकर बहुत लोग मरते देखे जाते हैं। जिनको दुर्गति का बंध हो गया है उन्हें ही उनकी भ्रष्ट औषधि से आराम होता है। जैसे राजा अरविन्द को दाहज्वर हो गया था, उसने अनेक इलाज किये तो भी रोग शान्त नहीं हुआ। एक दिन महल की छत पर दो छिपकलियों की लड़ाई होने से उनके शरीर के खून की एक बूंद राजा के शरीर पर आ गिरी जिससे राजा को बहुत शीतलता का अनुभव हुआ। तब उस पापी राजा ने अपने पुत्र से कहा – मुझे खून की बावड़ी भरवा दो, मैं उसमें खूब नहाकर दाह की आताप से रहित हो जाऊँगा। तब पुत्र ने पाप से भयभीत होकर लाख के रंग की बावड़ी भरवा दी। राजा बावड़ी को देखकर बहुत आनंदित होकर बावड़ी में डूबकर नहाने पहुँचा, किन्तु उस बावड़ी को नकली खून की बावड़ी जानकर पुत्र के ऊपर बहुत क्रोधित हुआ। पुत्र को मार डालने के लिये छुरी लेकर दौड़ा किन्तु रास्ते में ही गिर पड़ा तथा अपने हाथ की छुरी से स्वयं ही मर गया और नरक में जा पहुँचा। इसी तरह जिनकी दुर्गति होनी है उनको अत्तार की दवाइयों से आराम हो जाता है, तब पापरूप अत्तार की अन्य वस्तुओं में उसकी प्रवृत्ति हो जाती है। अत: प्राणों के नाश का अवसर आने पर भी, छह महीने के बालक को भी अत्तार की औषधि देना उचित नहीं है। धर्म बिगड़ जाने के बाद यह जिनधर्म अनंतकाल में भी नहीं मिलेगा। इसलिये जैनधर्म के धारकों को शरीर के हजारों खण्ड हो जायें तो भी अभक्ष्म-भक्षण नहीं करना चाहिये। होटल (बाजार) का भोजन त्याग : बाजार की दुकानों का आटा कभी नहीं खाना चाहिये । बेचनेवालों के यहाँ सभी चमारिन, खटीकनी, मुसलमानिनी, धोबिन इत्यादि पीसती हैं। मुसलमान, धोबी, बलाई आदि को राजा के तबेला-तोपखाना से आटा मिलता है, उनसे बाजार के दुकानदार खरीद लेते हैं। यह आटा एक महीना या छह महीने पहले का पिसा हुआ है, कोई मर्यादा नहीं है। उसमें हजारों इल्लियाँ हो जाती हैं। बहुत लोग तो घुना आनाज लेकर पिसवाकर बेचते हैं तथा खरीदवाले मुसलमान-म्लेच्छ आदि सभी उसी आटे में हाथों को लगाकर तुलाकर ले जाते हैं। मुसलमानों के नुकता ( मृत्यु भोज) विवाह में यदि काम में नहीं आता है तो वे आधा आटा तो उसन (गूंथ ) लेते हैं, आधा दुकानदार को ही वापिस कर देते हैं। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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