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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates चतुर्थ- सम्यग्दर्शन अधिकार] [१४५ ऐसा विशेष जानना - अनादिकाल से विदेहक्षेत्र में तथा भरतक्षेत्र के जिनधर्मी के तो दिन में एक बार या दो बार ही भोजन होता है, रात्रि में तो कभी भी भोजन नहीं होता है। जो रात्रि में भोजन करता है तो चूल्हा, चक्की, बुहारी, जल आदि का समस्त आरम्भ रात्रि में ही होगा। भोजन बनाने में, तरकारी बनाने में, पुरुषों के भोजन करने में, स्त्री-कुटुम्ब-सेवक आदि के में बर्तन धोने में मांजने में बहारने में दो प्रहर रात्रि बीत जाती है। अनेक जीवों का संहार हो जाता है, समस्त यत्नाचार का अभाव हो जाता है। कीड़ा, कीड़ी, इल्ली, कसारी, मकड़ी इत्यादि बड़े-बड़े जीवों का भोजन में गिरना; तथा ईंधन में, चूल्हें में, तरकारी में, जल में, बर्तनों में तो गिरते ही हैं। दीपक व चूल्हा आदि के निमित्त से मक्खी, मच्छर, डांस , पतंगे आदि अनेक जीवों का नित्य प्रति ही होम हो रहा है। दिन में भी आरम्भ तथा रात्रि में भी घोर आरम्भ से सभी परिवार के लोगों को बहुत दुःख उत्पन्न हो जाता है। रात्रि में घोर धन्धा-आरम्भ करने से परिणामों में समता नहीं आ सकती है। रात्रि में भोजन करनेवाले को धर्म-सेवन, शास्त्र का पठन, श्रवण, तत्वार्थ की चर्चा, सामायिक, जाप, शुभध्यान का तो अवसर ही नहीं रहता है। जिनेन्द्रधर्म के धारक रात्रि भोजन कभी भी नहीं करते हैं - ऐसी सनातन रीति अभी तक चली आ रही है। करोड़ो मनुष्यों में यह बात प्रसिद्ध है नि जिनधर्मी रात्रि में भोजन नहीं करते। ऐसी यश की उज्ज्वलता, प्रभावना, उच्चता, भोजन की शुद्धता को बिगाड़कर यदि कोई प्रमादी विषयों में अंधा होकर रात्रि में दूध, कलाकंद, पेड़ा खाता है तथा दवाई-पानी आदि पीता है वह अपने उत्तम आचरण को, धर्म को, कुल की मर्यादा को, जैनीपना को जल में डुबोकर सन्मार्ग से भ्रष्ट हुआ उन्मार्गी हैं। उसका तो बाह्य-आभ्यंतर मार्ग ही भ्रष्ट है और वह आगे अधर्म की परिपाटी चलाने वाला है। इसी प्रकार रात्रि का बनाया हुआ भोजन भी दिन में खाने योग्य नहीं है। नीच संगति त्याग : मिथ्या धर्म के धारकों के साथ, मांस भक्षियों के संग बैठकर भोजन नहीं करो। नीच जाति के पुरुषों से मित्रता नहीं करो। देवता को चढ़ाया गया भोजन नहीं खाना चाहिये। हाथी दांत की चूड़ी, रोम का (ऊनी) वस्त्र, कम्बल पहिन कर भोजन बनाया हो तो वह भोजन भी खाने योग्य नहीं है। मांसभक्षी के घर में, नीच जाति के घर में भोजन नहीं करना चाहिये। इत्र त्याग : अत्तारों का अर्क, माजूम, शरबत तथा अन्य सभी वस्तुएँ खाना योग्य नहीं है। अत्तार के यहाँ विदेशों का बना हआ. म्लेच्छों के जल से बनाया हआ. जठे अर्क की भरी हर्ड बोतलें आती है, तथा वह किस-किस वस्तु से बनाया गया है सभी कुछ अज्ञात है। अर्क में अनेक जलचर, थलचर, नभचर पंचेन्द्रिय आदि जीवों के मांस के कई अर्क हैं। अनेक प्रकार की शराब बनाकर अर्क नाम रख देते हैं, बहुत जीवों के अंडों के रस की बोतलें भरी रखी हैं। समस्त शर्बत, मुरब्बा, माजूम जवारस आदि में मधु (शहद) होती है। अनेक जीवों के अनेक अंग, इंद्रियाँ, जिह्वा , कलेजा, सूखा हुआ मांस वगैरह अत्तार बेचता है। भारत के सभी उत्तम कुलवालों की बुद्धि भ्रष्ट करने को मुसलमान लोगों ने अपनी उच्छिष्ट भक्षण कराने के लिये सम्पूर्ण हिन्दुस्तान के लोगों को भ्रष्ट करने के लिये अत्तारों की दुकाने खुलवाई हैं। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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