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________________ [१३७ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates चतुर्थ - सम्यग्दर्शन अधिकार] जितने भोग-उपभोग से प्रयोजन सधे उससे अधिक बिना प्रयोजन का अति संग्रह करना वह अतिप्रसाधन नाम का अतिचार है।५। इस प्रकार अनर्थदण्ड व्रत के पांच अतिचार कहे वे त्यागने योग्य हैं। अब भोगोपभोग परिमाणव्रत कहनेवाला आठ श्लोक कहते हैं अक्षार्थानां परिसंख्यानं भोगोपभोगपरिमाणम्। अर्थवतामप्यवधो रागरतीनां तनूकृतये ।।८२।। अर्थ :- पांच इंद्रियों के प्रयोजनवान विषयों में जो रागरूप आसक्ति भाव है उसे घटाने के लिये सीमा बांधाना, सीमित करना वह भोगोपभोग परिमाण नाम का व्रत है। ___ भावार्थ :- संसारी जीवों को इन्द्रियों के विषयों में बहुत राग रहता है। उस राग के कारण व्रत, संयम, दया, क्षमा आदि समस्त गुणों से पराङ्मुख हो रहा है। अतः जो अणुव्रतों का धारी गृहस्थ है वह हिंसा , असत्य, चोरी, परस्त्री सेवन, अपरिमाण परिग्रह से उत्पन्न जो अन्याय के विषयों में प्रीति है उसका त्याग कर देने से व्रती हो गया है। अब न्याय के विषयों को भी तीव्र राग का कारण जानकर उनसे अरुचि हो जाने से राग की आसक्ति घटाने के लिये अपने प्रयोजनवान इंद्रियों के विषयों में भी परिमाण करना वह भोगोपभोग परिमाण नाम का गुणव्रत है। व्रती जीवों को इंद्रियों के विषयों में निरर्गल प्रवृत्ति को रोककर भोगोपभोग परिमाण करना महान संवर का कारण है। अब भोग क्या है, उपभोग क्या है ? उनका लक्षण श्लोक द्वारा कहते हैं भुक्त्वा परिहातव्यो भोगो भुवत्वा पुनश्च भोक्तव्यः। उपभोगोऽशनवसनप्रभृतिः पञ्चेन्द्रियो विषयः ।।८३।। अर्थ :- जो एक बार भोग करने के बाद फिर त्यागने योग्य हो जाता है वह भोग है। जो भोगने के बाद फिर भोगने योग्य रहता है वह उपभोग है। भोजन आदि पांच इन्द्रियों के विषय भोग हैं तथा वस्त्र आदि पाँच इन्द्रियों के विषय उपभोग हैं। ____ भावार्थ :- जो पदार्थ एकबार ही भोगने में आते हैं और फिर भोगने में नहीं आते हैं वे भोग हैं, तथा जो पदार्थ बार-बार भोगने में आते हैं वे उपभोग हैं। जैसे भोजन अनेक प्रकार का एकबार ही भोगने में आता है, कपूर-चंदन आदि का विलेपन, पुष्पमाला, इत्र, फुलेल, मेला, कौतुक, इन्द्रजालादि, स्तवन के गीत, शब्दादि एकबार ही भोगने में आते हैं वे पाँच इंद्रियों के विषय भोग कहलाते हैं। जैसे वस्त्र, आभरण, स्त्री, सिंहासन, पलंग, महल , बाग, वादित्र, चित्राम इत्यादि बार-बार भोगने में आते हैं वे उपभोग हैं। जो भोग और उपभोग दोनों का परिमाण करता है उसके भोगोपभोग पारिमाणवत होता है। अब जो परिमाण करने योग्य नहीं, किन्तु जीवन भर के लिये त्याग करने योग्य हैं, उन्हें बतलानेवाला श्लोक कहते हैं : Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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