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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार चोरपना भी महाव्यसन है। चोर स्वयं भी निरन्तर भयभीत रहता है तथा चोर से दूसरे जीवों को भी बहुत भय रहता है। माता को भी अपने चोर पुत्र से भय रहता है। चोर इस लोक में अपनी सम्पूर्ण प्रतिष्ठा बिगाड़कर महाकलंकित हो जाता है। वह राजा से बहुत दण्ड प्राप्त करता है, हाथ का काट देना, नाक का छेदा जाना आदि दण्ड प्राप्त होता है। चोर के भाव संतोषरूप कभी नहीं होते हैं। चोर को योग्य-अयोग्य कार्य करने का विचार ही नहीं रह जाता है, इसी कारण वह धर्मध्यान, स्वाध्याय , धर्मकथा से पराङ्मुख ही रहता है।
जैनशास्त्रों को सुनता पढ़ता हुआ भी जो दूसरों के धन पर अपनी नियत चलाता है वह ठग है। जिसने जगत के ठगने को शास्त्ररूप ग्रहण कर लिया है उसको किंचित् भी धर्म की श्रद्धा नहीं है, ऐसा समझना। जिसको जिनधर्म की महिमा की श्रद्धा होती है उसे चारित्रमोह के उदय से यद्यपि त्याग, व्रत, संयम आदि नहीं होते हैं तो भी अन्यायपूर्वक धन प्राप्त करने में उसकी वांछा नहीं होती है। चोरी से दोनों लोकों का भ्रष्ट होना जानकर, किसी के बिना दिये धन में वांछा नहीं करो।
परस्त्री की वांछा नाम का व्यसन समस्त अनर्थों में प्रधान है। परस्त्री लम्पट को इसलोक में परलोक में जो घोर पाप का बंध, विपत्ति , बदनामी, बेइज्जती, मरण, रोग, अपवाद, धनहानि, राजदण्ड, जगत में बैर, दुर्गति गमन, मारन, ताड़न, बंदीगृह में बंधन आदि होते हैं उन्हें वचनों के द्वारा कहने में कोई समर्थ नहीं है। इस प्रकार सातों ही व्यसन दूर से ही छोड़ देने में कुछ भी हानि नहीं है। जिसने सप्त व्यसन का त्याग कर दिया है उसने अपनी समस्त दुःख , अकीर्ति, नरकादि कुगति गमनरूप सभी आपत्तियाँ दूर कर ली है। अब अनर्थदण्ड त्यागवत के पाँच अतिचार कहनेवाला श्लोक कहते हैं -
कन्दर्पं कौत्कुच्यं मौखर्यमतिप्रसाधनं पञ्च ।।
असमीक्ष्य चाधिकरणं व्यतीतयोऽनर्थदण्डकृद्विरतेः ।।८१।। अर्थ :- चारित्रमोहनीय कर्म के उदय से रागभाव की अधिकता के कारण हास्य से मिश्रित भण्डवचन बोलना वह कंदर्प नाम का अतिचार है।४। तीव्रराग के उदय से हास्यरूप भण्डवचनों सहित काया की खोटी चेष्टा निंद्य क्रिया करना वह कौत्कुच्य नाम का अतिचार है।२। बिना प्रयोजन साररहित बहुत बकवाद करना वह मौखर्य नाम का अतिचार है। ३।
_प्रयोजन रहित बहुत अधिक मन-वचन-काय की प्रवृत्ति करना वह असमीक्ष्याधिकरण कहलाता है। रागद्वेष बढ़ाने वाले काव्य, श्लोक, कवित्त छंद गीतों का स्मरण करना वह मन असमीक्ष्याधिकरण कहलाता है। पाप कथा द्वारा दूसरे के मन-वचन-काय को बिगाड़ने वाली खोटी कथा कहना वह वचन असमीक्ष्याधिकरण है। बिना प्रयोजन गमन करना, उठना, बैठना, दौड़ना, पटकना, फेंकना, पत्र, फल, पुष्प आदि का छेदन-भेदन-विदारण आदि करना, तथा अग्नि, विष, क्षार आदि देना वह काय असमीक्ष्याधिकरण नाम का अतिचार है।४।
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