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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates चतुर्थ - सम्यग्दर्शन अधिकार] [१३५ देना; धरना, जाना, आना, प्रयोजनरूप करना; तथा परलोक के लिये धर्मकार्यों में प्रवर्तन करना - ये दो ही गृहस्थ के करने योग्य कार्य हैं। इन दो कार्यों - न्यायरूप आजीविका तथा धर्म रूप प्रवर्तन - के सिवाय अन्य जो प्रवृत्ति है वह व्यसन है। वे व्यसन सात है - जुआ खेलना १, मांसभक्षण २, मद्यपान ३, वेश्या सेवन ४, शिकार करना ५, चोरी करना ६, पर-स्त्री सेवन करना ७। ये सातों ही व्यसन महाघोर पाप का बंध कराने के कारण हैं। इन व्यसनों में उलझना सहज है, छूट कर सुलझना बड़ा कठिन है। इन व्यसनों से पापबंध ही ऐसा होता है कि बुद्धि उल्टे कार्यों में ही लगती है, उनसे बाहर निकल नहीं पाता है। यहां जुआ का वर्णन किया है, होड़ लगाने को भी जुआ में ही समझना। अभी कुछ वर्षों (७०-८०) से अफीम आदि के फाटका - सट्टा का व्यापार चल पड़ा है। यह व्यापार तीव्र तृष्णा से युक्त पुरूषों के संतोष को बिगाड़नेवाला चल पड़ा है, उसे भी जुआ में ही शामिल जानना। __मांस, मद्य, शिकार - जैनियों के कुल में होता ही नहीं है। ये महाव्यसन है, लगने के बाद इनका छूटना महाकठिन है। इसका विशेष वर्णन अभक्ष्य के वर्णन में करेंगे। धुने हुए अन्न का बनाया समस्त भोजन; चमड़ें में रखा हुआ समस्त जल, घी, तेल, रस आदि; रात्रि भोजन आदि सभी अभक्ष्यों को मांस के दोष समान जानकर छोड़ ही देना चाहिये। भांग, तमाखू, जर्दा, बीड़ी, अफीम, हुक्का ये समस्त ही पराधीन करनेवाले एवं ज्ञान को नष्ट करनेवाले होने के कारण तथा परमार्थ रूप बुद्धि को भी नष्ट करनेवाले होने से मदिरा के समान ही हैं, इसलिये इन्हें त्याग ही देना चाहिये। ___ अन्य जीवों की दया नहीं करके उनकी आजीविका को बिगाड़ देना, धन लुटवा देना, बहुत दण्ड करा देना वह सभी शिकार ही है। दूसरे की बेइज्जती करा देना, निवास स्थान छुड़ा देना वह सभी शिकार करने से भी अधिक-अधिक पाप है, अतः उसका त्याग ही कर देना चाहिये। जिसने वेश्या-सेवन किया उसका सभी आचार, भोजन, पानी भ्रष्ट हो गया। वेश्या को चण्डाल, भील म्लेच्छ, मुसलमान इत्यादि सभी सेवन करते हैं। जो वेश्या मांस, मद्य का खान-पान नित्य ही करती है, धन ही से जिसे प्रीति है ऐसी वेश्या के मख की लार जो पीता है, उसका जाति, कुल , आचार सभी भ्रष्ट हो जाता है। अतः वेश्या का सेवन त्याग कर देना ही उत्तम है। जिसने वेश्या का संगम किया उसके चोरी, जुआ, मद्यपान आदि भी व्यसन होते हैं। उसके धन की हानि होती है, धर्म से पराङ्मुखता हो जाती है, बुद्धि विपरीत हो जाती है, मायाचार में, झूठ में, छल में तत्परता हो जाती है, निंद्यकार्य करने की ग्लानि नहीं रहती है, लज्जा नष्ट हो जाती है। वेश्या का हावभाव, विलास , विभ्रम आदि देखने से याद करने से, अतिरागी हो जाने से सभी कुल मर्यादा भंग कर देता है। वेश्या में आसक्त हुआ पुरुष कफ में पड़ी हुई मक्खी के समान अपने को छुड़ा नहीं पाता है। वेश्या सेवन महान् अनीति का कार्य है। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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