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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार १३४] यह ऐसी अविद्या है कि जो इस खेल में आसक्त हो जाता है उसका इस लोक संबंधी नौकरी व्यापार, लिखना-पढ़ना इत्यादि सभी कार्य बिगड़ जाने पर भी वह इसे छोड़ नहीं सकता है। जो जुआ खेलता है वह कोई धंधा–व्यापार नहीं कर सकता है। इससे दरिद्रता निकट आती जाती है। हीन, नीच, मलिन जाति के लोगों की बराबरी पर बैठकर जुआ खेलता है। जुआरी यह नहीं देखता है कि ये म्लेच्छ हैं; नाई, कलाल, धोबी सभी जुआ में साथ ही खेलते प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं। जिनके शरीर से दुर्गन्ध आ रही है, वस्त्रों आदि में जुआं आदि कीड़े निकल रहे हैं उनकी बराबरी पर बैठकर जुआ खेलता है। अन्य अधर्म के स्थानों में आप जुआ खेलने जाकर बैठ जाता है, दूसरों को खेलता देखकर रास्ते में ही खड़ा हो जाता है, बैठने को जगह न हो तो भी आप खड़े-खड़े ही देखता रहता है, यह ऐसा व्यसन है। खाना, पीना, देना, लेना सब छोड़कर रहकर देखता रहता है। मनिहार. रंगरेज, कमनीगर, बिसायती आदि मांसभक्षी तथा नीच जाति के लोगों के साथ में जुआ, ख्याल आदि खेल खेलता है, देखता है। बहुत क्या कहें ? - अपना सब कार्य बिगड़ जाय, तथा माता-पिता आदि का मरण हो जाय तो भी इस खेल में से उठा नहीं जाता है, ऐसे तीव्र परिणामों से नरक तिर्यंच का बंध ही होता है। जिसमें कुछ भी धन नहीं आता है, किन्तु विसंवाद ही होता है ऐसे जुआ आदि में आसक्त होने से धन की हारजीत होने वाले जुआ से भी अधिक पाप का बंध करता है। जिसमें धन की हारजीत होती है उसमें तो थोड़ी ही देर खेलता है, किन्तु इन बिना धन की हारजीत वाले खेलों में तो इसका परिणाम हमेशा ही फंसा रहता है। जो इस खेल में व्यसन में लग जाता है उसे धर्म का नाम भी अच्छा नहीं लगता है, उसकी बुद्धि विपरीत होकर पापक्रिया में, अन्याय में, असत्य में, विकथा में ही लगती है। देखो! यह मनुष्य जन्म, उत्तम कुल , निरोग शरीर, उत्तम धर्म ये अनंतकाल में नहीं पाया था सो अब इन सबका संयोग एक साथ यहां तुम्हें मिल गया है, इसकी एक घड़ी भी करोड़ों के धन में नहीं मिलती है। ऐसा अवसर सिद्धान्तों का स्वाध्याय, जीवादि द्रव्यों की चर्चा, अनित्यादि बारह भावनाओं, सोलह कारण भावनाओं, पंच परमेष्ठी की वंदना, जाप, स्मरण आदि करके सफल करने को मिला था; तूने चौपड़, गंजफा, शतंरज, ताश आदि महान् अविद्या में फंसकर समस्त धर्म से, धर्म के मार्ग से पराङ्मुख होकर महापाप कमाकर मर जाने में ही व्यतीत किया। इसके फल में नरक, तिर्यंच आदि में जाकर उत्पन्न होगा। सप्त व्यसन त्याग : भगवान के परमागम में तो कहा है कि जिसके सप्त व्यसन का त्याग होगा वही जिनधर्म के ग्रहण करने का पात्र होगा। जिसके ये सप्त व्यसन ग्रहण हो जाते हैं उसकी बुद्धि ही विपरीत हो जाती है; पाप कार्यों में प्रवीण हो जाता है, अनीति में तत्पर रहता है। इसलोक का कार्य तो न्यायमार्ग से अपने कुल के योग्य षट्कर्मों द्वारा आजीविका करना, तथा खान-पान आदि एवं शरीर को संस्कारित करना-कपड़े व आभूषण आदि पहिनना; न्याय रूप लेना Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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