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________________ १३८] Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार त्रसहतिपरिहरणार्थ क्षौद्रं पिशितं प्रमादपरिहृयते। मद्यं च वर्जनीयं जिनचरणों शरणमुपयातैः ।।८४ ।। अर्थ :- जिनेन्द्र भगवान के चरणों की शरण जिन्हें प्राप्त हो गई हैं ऐसे जो सम्यग्दृष्टि लोग हैं उन्हें त्रस जीवों की हिंसा के परित्याग के लिये क्षौद्र अर्थात् मधु तथा पिशित अर्थात् मांस त्यागने योग्य ही हैं। प्रमाद अर्थात् जो हित अहित में असावधानी है उसे छोड़ने के लिये मद्य का त्याग अवश्य करना चाहिये । भावार्थ :- जो पुरुष जिनेन्द्र के चरणों की आज्ञा ( वचनों ) के श्रद्धानी हैं वे त्रस जीवों की हिंसा के त्याग के लिये मधु तथा मांस का त्याग करते ही हैं। प्रमाद जो अचेतपना उसे त्यागने के लिये मदिरा का त्याग करते ही हैं। जिसके मधु, मांस, मद्य का त्याग नहीं है वह जिन-आज्ञा से पराङ्मुख है, जैनी नहीं है। त्यागने योग्य क्या है, उन्हें कहनेवाला श्लोक कहते हैं :अल्पफलबहुविघातान्मूलकमार्द्राणि श्रृङ्गवेराणि । निम्बकुसुमं कैतकमित्येवमवहेयत् ।।८५।। यदनिष्टं तद्व्रतयेद्यच्चानुपसेव्यमेतदपि जह्यात् । नवनीत अभिसन्धिकृता विरतिः विषयाद् योग्याद् व्रतं भवति । ८६ ।। अर्थ :- जिनके सेवन से अपना प्रयोजनरूप फल तो अल्पसिद्ध होता है किन्तु खाने से अनन्त जीवों का घात होता है ऐसे कन्द, मूल, अदरक, कांटेदार छोटी झाड़ियों के बेरश्रृंगवेर, कंदमूल, मक्खन, नीम के फूल, केतकी - केवड़ा के फूल जिनमें अनन्त जीवों का घात होता हैं वे अनंतकाय त्यागने योग्य ही हैं। जिनके एक शरीर में अनन्त जीव हैं वे अनंतकाय हैं। जो अपने लिये अनिष्ट है उसका त्याग कर देना, जो सेवन योग्य नहीं ऐसे अनुपसेव्यों का त्याग करना ही उचित है। यद्यपि अनिष्ट अनुपसेव्य के सेवन का कोई प्रयोजन ही नहीं है, तो भी अपने अभिप्राय से योग्य विषय का त्याग करना भी व्रत कहलाता है। जिसका सुख तो जिह्वा को थोड़ी देर के लिये स्वादमात्र किन्तु जिसके एक बाल बराबर कण में भी अनंतानंत बादर निगोद जीवों का घात होता है ऐसे समस्त कंद, मूल आदि तथा नीम का फूल, केतकी का फूल, केवड़ा का फूल त्यागने योग्य ही हैं। और भी बहुत फूल जिनमें प्रत्यक्ष त्रस जीव भरे दिखाई देते हैं, जिनधर्मियों के लिये वे सभी त्यागने योग्य हैं। जो वस्तु है तो शुद्ध ही, किन्तु खाने से अपने शरीर में वेदना उत्पन्न हो जाती है, पेट दर्द हो जाता है, वात-पित्त-कफ आदि दोष हो जाते हैं, खून में विकार, पेट में विकार करने वाले भोजन आदि तथा दुःख देने वाले इन्द्रियों के विषयों का सेवन भी नहीं करो। जो अतितीव्ररागी, इंद्रियों का लम्पटी होगा वही अनिष्ट पदार्थ का सेवन करेगा। अपनी मृत्यु तथा तीव्र वेदना के भोगने के Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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