SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 175
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates १३२] [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार अनर्गल प्रवृत्ति त्याग : व्यर्थ का आरंभ-विसंवाद छोड़ देना चाहिये। माटी, कचरा, कीचड़ कांटा, ठीकरा, मल, मूत्र, कफ, उच्छिष्ट, जल, अग्नि, दीपक इत्यादि भूमि को देखे बिना मत पटको। शीघ्रता से पाषाण, काष्ठ, आसन, शैय्या, पलंग, धातु के बर्तन, चरवा, चरी, तबेला , परांत, चौकी, पाटा, वस्त्रादि को जमीन के ऊपर घीसकर, रगड़कर, घसीटकर प्रमाद से नहीं सरकाओ। इसमें यत्नाचार का अभाव है, बहुत जीवों की हिंसा होती है। अतः देखकर यत्न से उठाओ-धरो। बिना प्रयोजन भूमि का कुचरना, वृक्ष की डालियाँ मोड़ना, हरे घास को छेदना, रगड़ना, कुचरना, वृक्षों के पत्ते-फूल आदि को चीरना , तोड़ना, वृथा जल पटकना इत्यादि कार्य पाप से डरकर नहीं करो। __ अधिक क्या कहें ? - गृहाचार में जितनी वस्तु, पात्र, अन्न, जल आदि हैं उनको देखकर उठावो धरो। जिस प्रकार धर्म नहीं बिगड़े, किसी का उजाड़-बिगाड़ नहीं हो उस प्रकार करो। प्रमाद को छोड़कर भोजन, पानी, औषधि, पकवान, आदि नेत्रों से स्वयं देखकर सोधकर खाना चाहिये। शीघ्रता से, प्रमादी होकर. बिना सोधा भोजन मत करो। गमन में, आगमन में, उठने में, बैठने में देखेबिना सोधेबिना प्रवर्तन मत करो, जिससे दया पले तथा अपने शरीर को बाधा नहीं हो, हानि नहीं हो, किसी का अनादर नहीं हो। प्रमादी होकर हित-अहित का विचार किये बिना, सुपात्र-कुपात्र का विचार किये बिना किसी से कुछ बात नहीं कहो। कहने में गुण-दोष का विचार करके कहो। यदि कोई आपसे पूछे तो शीघ्रता से उत्तर मत दो, यही कहो – मैं समझकर विचारकर आपको उत्तर दूंगा। पश्चात् समय पाकर धर्म-अर्थ-काम से अविरुद्ध विचारकर विनय सहित उत्तर दो। शीघ्रता से उत्तर देने में उस समय क्रोध, मान, माया, लोभ के वश से वचन निकलने का ठिकाना नहीं रहता है; कषाय के वेग में योग्य-अयोग्य कहने का विचार नहीं रहता है; दूसरे की पूरी बात सुनकर तथा कहने का सम्पूर्ण अभिप्राय जानकर ही उत्तर देना उचित है। अतः प्रमाद माद से असावधानी से वचन मत कहो। एकान्तरूप. हठग्राही. पक्षपाती नहीं होना चाहिये। इससे धर्म बिगड़ जायेगा। इसलिये दोनों लोकों के हित के लिये प्रमादचर्या अनर्थदण्ड छोड़ो। इस तरह पांच प्रकार के अनर्थदण्डों को समझकर जो उनका त्याग करता है, उसके अनर्थदण्ड त्याग नाम का व्रत होता है जुआ त्याग : अनर्थदण्डों में महा अनर्थ करने वाला जुआ है। जुआ समस्त व्यसनों में प्रधान है, समस्त पापों का संकेत स्थान है, महान आपदा का कारण है, समस्त अनीतियों में महाअनीति है, जुआरी के परिणाम ही महादुष्ट होते हैं। वह अपना सब घर, सम्पति जुआ में हारकर भी दूसरे का धन लेना चाहता है। जुआरी के इतना अधिक लोभ होता हैं कि वह रात-दिन यही विचार करता रहता है – “दूसरों का धन मेरे पास आ जाय, चाहे कैसे भी हो।” मेरा धन जाता है तो जाये, अपयश होता है तो हो, दरिद्रता होती है तो हो, किसी प्रकार से दूसरे का धन मैं जीत लूँ तभी मेरा जीवित रहना सफल है। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy