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________________ _Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates चतुर्थ - सम्यग्दर्शन अधिकार ] [१३९ करो। अन्य की स्त्री को देखने की अभिलाषा नहीं करो। अन्य मनुष्य तिर्यंचों की कलह मत देखो। अन्य के पुत्र का, स्त्री का वियोग होने की भावना नहीं करो। पर का अपमान, अपयश, अपवाद सुनकर हर्षित मत होओ। अन्य का लाभ देखकर विषाद नहीं करो। अन्य के रस सहित भोजन, आभरण आदि देखकर अपने परिणामों मे दुःखित मत होओ। अपना दारिद्र, वियोग, रोग होने पर आर्त परिणाम करके दुःखी मत होओ। धनवानों से ईर्ष्या मत करो। किसी सिंह, व्याघ्र, सर्प आदि के शिकार के संबंध में चिन्तवन मत करो, संग्राम में किसी की हारजीत, जय-पराजय मत चाहो; पर की स्त्री के साथ वार्तालाप करने की इच्छा नहीं करो; वेश्यादि के हाव-भाव, नृत्य का विलास देखने की अभिलाषा मत करो। गाली, भंडवचन वाले गीत नहीं सुनो। खोटे राग, स्वांग, कौतूहल, परिणामों को मलिन करने के कारण होने से इन्हें सुनना, देखना दूर से ही छोड़ो। दरिद्रता आ जाने पर भी नीची प्रवृत्ति द्वारा आजीविका नहीं करो, किसी से याचना नहीं करो, दीनता के वचन मत कहो, निर्धनपना होने पर भी प्रवृत्ति को विकाररूप मत करो। नीच कुलवालों के करने योग्य कार्य वस्त्र रंगना, धोना इत्यादि निंद्य कार्य करने का तो त्याग अवश्य ही करो। जिनालय आदि धर्म के स्थानों में स्त्रियों की कथा, राजकथा, चोरकथा, भोजनकथा, महापाप का बंध करनेवाली कथा कभी नहीं करो। लेनदेन, ब्याह - सगाई का झगड़ा, न्याय पंचायती, जाति कुल का विसंवाद जिनमंदिर में बैठकर कभी नहीं करो। यदि मंदिर में बैठकर विकथा करोगे तो धर्मस्थान की मर्यादा तोड़ने के कारण नरक- निगोद का कारण घोर पाप कर्म का बंध होगा। इसलिये मंदिर व धर्मायतनों में पाप का बंध बढ़ानेवाले कार्यों का दूर से ही त्याग कर देना चाहिये। जिनमंदिर में भोजन, पानी, ताम्बूल, गंध, पुष्प, विषय आदि शयनकरना, उच्च आसन पर बैठना, वणिज, सगाई -ब्याह, झगड़ा, गाली के वचन, हास्य के वचन, अविनय, आरंभ के वचनों में कभी प्रवर्तन नहीं करो । दुःश्रुति त्याग : मिथ्याश्रुत का श्रवण नहीं करो। जिनके सुनने से विषयों में राग बढ़े, हास्य कौतुक उत्पन्न हो, काम जाग्रत हो जाये, भोजन के अनेक स्वादों में चित्त चला जाये, ऐसी कथनी श्रवण मत करो। स्त्री पुरुषों के पापरूप चरित्र की कथा, भूत-प्रेतों की असत्य कथा, हिंसा की प्रधानता के धारक वेद - स्मृति आदि अन्य ग्रंथों की कथा, कपोल-कल्पित अनेक कहानियाँ, फारसी किताबों में लिखे अनेक किस्से-कहानी महापाप, दुर्ध्यान करानेवाले होने से सुनना ही नहीं चाहिये। महाभारत, रामायण आदि हिंसा बढ़ाने वाले ग्रंथों की कल्पित कथायें कभी नहीं सुननी चाहिये । इसी प्रकार कषायों को उत्पन्न करनेवाले क्रोधियों के वचन, अभिमानियों के मद भरे वचन, मायाचारियों के कुटिल वचन, लोभियों के लालसा उत्पन्न करानेवाले वचन, मद्यमाँस अभक्ष्य के स्वाद की प्रशंसा करनेवालों के वचन, मद्य - अमल - भांग - तमाखू - हुक्का की प्रशंसा करने वालों के वचन कभी नहीं सुनने चाहिये । धर्म का अभाव करनेवाले, परलोक आदि का अभाव कहनेवाले नास्तिकों के वचन पापबंध के कारण होने से नहीं सुनो। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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