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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates चतुर्थ - सम्यग्दर्शन अधिकार]
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हो जाये, इंद्रियाँ नष्ट हो जायें, लोक में अपवाद फैल जाये, स्थान से हटा दिया जाये, बुद्वि भ्रष्ट हो जाये – ऐसा बार-बार चितवन करना वह सब अपध्यान है। इस प्रकार दूसरे पर दुःख आपत्ति चाहने से स्वयं को कुछ भी लाभादि नहीं होता है, अपने विचार करने से दूसरे का कुछ भी नहीं बिगड़ता है, किन्तु यह व्यर्थ ही अपने को महापाप का बंध करता हैं। दूसरे का बुरा-भला उसी के स्वयं के पाप-पुण्य के उदय के अनुसार होता है। जो व्यर्थ दान करता है उसके अपध्यान नाम का अनर्थदण्ड कहा है। अब दुःश्रुति नाम का अनर्थदण्ड कहनेवाला श्लोक कहते हैं :
आरम्भसंगसाहसमिथ्यात्वद्वेषरागमदमदनै : ।
चेतः कलुषयतां श्रुतिरवधीनां दुःश्रुतिर्भवति ।।७९ ।। अर्थ :- आरम्भ अर्थात् असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य, शिल्प; संग अर्थात् धन, धान्यादि परिग्रह; साहस अर्थात् आश्चर्यकारी बहादुरी आदि; मिथ्यात्व अर्थात् ब्रह्म अद्वैत, ज्ञान अद्वैत, क्षणिक याज्ञकादि विरुद्ध अर्थ के प्रतिपादक शास्त्र; राग अर्थात् आसक्ति; द्वेष अर्थात् वैर; मद अर्थात् अभिमान रूप आठ मद; मदन अर्थात् कामवेदना कृत विकार इनसे चित्त को कलुषित करनेवाले अवधि अर्थात् शास्त्र , उनका श्रवण करना वह दुःश्रुति नाम का अनर्थदण्ड है।
__ भावार्थ :- मिथ्यात्व तथा रागद्वेष उत्पन्न करानेवाले पदार्थों का विपरीत स्वरूप ग्रहण करानेवाले शास्त्रों को सुनना; विकथा, श्रृंगार, वीर, हास्यरस के प्ररूपक तथा मारण, उच्चाटन, वशीकरण, कामोत्पादक शास्त्रों को सुनना; जांगलिक सर्पो के, भूतों के, रसकर्म, इन्द्रजाल, रसायण, मायाचार आदि के प्ररूपक शास्त्र तथा दुष्ट शास्त्र , दुष्टकथा, दुष्टराग, दुष्टचेष्टा, दुष्टक्रिया, दुष्ट कर्मों का वर्णन करनेवाले शास्त्रों को सुनना है वह दुःश्रुति नाम का अनर्थदण्ड है। अब प्रमादचर्या नाम का अनर्थदण्ड कहनेवाला श्लोक कहते हैं :
क्षितिसलिलदहनपवनारम्भं विफलं वनस्पतिच्छेदम् ।
सरणं सारणमपि च प्रमादचर्यां प्रभाषन्ते ।।८०।। अर्थ :- बिना प्रयोजन पृथ्वी खोदने का, पत्थर फोड़ने का आरम्भ; जल पटकने का, सींचने का, छिड़कने का, अवगाहन करने का आरम्भ; बिना प्रयोजन अग्नि भड़काने का, जलाने का , बुझाने का, दाबने का आरम्भ; पवन चलाने का, फूंकने का , पवन के यन्त्र रोकने का , अग्नि में धमने का वृथा आरम्भ; प्रयोजन बिना वनस्पति का छेदना, बिना प्रयोजन गमन करना, गमन कराना – ये समस्त कार्य करने को प्रमादचर्या नाम का अनर्थदण्ड कहते हैं।
खोटा उपदेश देने का त्याग - यहाँ ऐसा विशेष जानना - गृहस्थ के गृहाचार में अनेक पाप ही के आचरण हैं। यदि गृहाचारी पापों का त्याग नहीं कर पा रहा है तो जिनसे अपना कुछ प्रयोजन सिद्ध नहीं होता ऐसे बिना प्रयोजन ही, केवल पापबंध के कारण, जिनका फल दुर्गतियों में असंख्यातकाल अनंतकाल तक दुःख ही भोगना पड़ता है, ऐसे निंद्यकर्म छोड़ ही देने चाहिये।
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