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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates चतुर्थ - सम्यग्दर्शन अधिकार] [१२५ अब दिग्व्रत के पांच अतिचार कहनेवाला श्लोक कहते हैं : ऊर्ध्वाधस्तात्तिर्यग्व्यतिपाताः क्षेत्रवृद्धिरवधीनाम् । विस्मरणं दिग्विरतेरत्याशाः पञ्च मन्यन्ते ।।७३।। अर्थ :- दिशाओं की मर्यादा की थी, उसका अज्ञान से या प्रमाद से उल्लंघन कर देना वह अतिचार है। जैसे ऊँचाई की मर्यादा का पर्वत पर चढ़कर भंग कर देना वह ऊर्ध्वातिपात अतिचार है। कुआ-बावड़ी, तालाब आदि में नीचे उतरने की ली हुई मर्यादा भंग कर देना वह अधःस्तातिक्रम अतिचार है। देशों, गुफाओं आदि में प्रवेश कर मर्यादा को भंग कर देना वह तिर्यग्व्यतिक्रम नाम का अतिचार है। मर्यादा का क्षेत्र किसी विशेष प्रयोजन हेतु बढ़ा लेना वह क्षेत्रवृद्धि अतिचार है। जो मर्यादा ली थी उसका विस्मरण हो जाना वह विस्मरण नाम का अतिचार है। ये दिग्व्रत के पांच अतिचार हैं। अब अनर्थदण्ड त्यागव्रत का वर्णन करनेवाले आठ श्लोक कहते हैं :__ अभ्यन्तरं दिगवधेरपार्थिकेभ्यः सपापयोगेभ्यः । विरमणमनर्थदण्डव्रतं विदुव्रतधराग्रण्यः ।।७४।। अर्थ :- जो दिशाओं की मर्यादा ली है उसमें मन-वचन-काय के योगों की व्यर्थ की प्रवृत्ति से विरक्त होना उसे व्रतधारियों में अग्रणी जो भगवान हैं, वे अनर्थदण्ड व्रत कहते हैं। भावार्थ :- मर्यादा के भीतर के क्षेत्र में भी ऐसे कार्य करना जिनसे अपना कोई प्रयोजन ही नहीं सधता है तथा व्यर्थ ही पाप का बन्ध करके दण्ड भुगतना पड़े वह अनर्थदण्ड है। वे सभी अनर्थदण्ड त्यागने योग्य हैं जिन्हें करने से अपने विषय भोग भी नहीं सधते. कछ लाभ भी नहीं होता, यश भी नहीं होता, धर्म भी नहीं होता, किन्तु निरन्तर पाप का ही बन्ध होता है। जिस का फल खोटा दुर्गतियों में भोगना पड़े ऐसे सभी अनर्थदण्ड त्यागने ही योग्य हैं। अब अनर्थदण्ड के पांच भेद कहनेवाला श्लोक कहते हैं : पापोपदेशहिंसादानापध्यानदुःश्रुतीः पञ्च । प्राहु: प्रमादचर्यामनर्थदण्डानदण्डधराः ।।७५।। अर्थ :- पाप का उपदेश, हिंसादान, अपध्यान, दुःश्रुति, प्रमादचर्या- ये पांच अनर्थदण्ड हैं, उन्हें जो अदण्डधर गणधर देव हैं उन्होने कहा है। भावार्थ :- मन-वचन-काय के अशुभ योगों को दण्ड कहते हैं। सभी जीवों को अपने अपने मन, वचन, काय के अशुभ योग ही दुर्गतियों में अनेक प्रकार का दण्ड देते हैं। मनवचन-काय के अशुभ योगरूप दण्ड को जो नहीं धारण करते हैं ऐसे अदण्डधर जो गणधर देव हैं उन्होंने अनर्थदण्ड पांच प्रकार का कहा है - पाप का उपदेश देना वह पापोपदेश है १, हिंसा के उपकरणों का देना वह हिंसादान है २, खोटा विचार करना वह अपध्यान है ३, खोटा सुनना वह दुःश्रुति है ४, प्रमादरूप आचरण करना वह प्रमादचर्या है ५ इस प्रकार अनर्थदण्ड के पांच भेद हैं। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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