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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates १२४] [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार की जाती है। मर्यादा लेनेवाला मरण पर्यन्त ली हुई मर्यादा के बाहर के क्षेत्र में गमनागमन नहीं करता है। ___अब दश दिशाओं की मर्यादा धारण करनेवाले के क्या होता है ? यह बतलानेवाला श्लोक कहते हैं : अवधेर्बहिरणुपापप्रतिविरतेर्दिग्वतानि धारयताम् । पंच महाव्रत परिणतिमणुव्रतानि प्रपद्यन्ते ।।७०।। अर्थ :- दिग्व्रतों को धारण करनेवाले गृहस्थों के मर्यादा के बाहर अणुमात्र भी पापप्रवृति से विरक्तता होने से वे अणुव्रत ही महाव्रतों की अवस्था को प्राप्त हो जाते हैं। भावार्थ :- जो अणुव्रती गृहस्थ दश दिशाओं की मर्यादा लेकर रहते हैं, उनकी मर्यादा के भीतर तो अणुव्रत ही रहे, किन्तु मर्यादा के बाहर समस्त त्रस-स्थावर जीवों की हिंसादि पांचों पापों का त्याग होने से अणुव्रत ही महाव्रतपने की परिणति को प्राप्त हो जाते हैं। अब कहते हैं कि जिसने क्षेत्र की मर्यादा ली है उसके अणुव्रत को सीमा के बाहर के क्षेत्र में महाव्रतपने की परिणति को प्राप्त होना क्यों कहते हो ? मर्यादा के बाहर साक्षात् महाव्रत ही कहो ? उसे उत्तर देने वाला श्लोक कहते हैं : प्रत्याख्तानतनुत्वान् मंदतराश्चरणमोहपरिणामाः । सत्वेन दुरवधारा महाव्रताय प्रकल्प्यन्ते ।।७१।। अर्थ :- अणुव्रती गृहस्थ के सकल संयम की विरोधी प्रत्याख्यानावरण कषाय के मंद उदय के कारण, चारित्रमोह के मंदतर ( संज्वलन कषाय के) उदय में होने वाला महाव्रत का परिणाम जीवों के द्वारा महाकष्ट करके भी धारण नहीं किया जा सकता है, इसलिये महाव्रतों की कल्पना करते हैं। भावार्थ :- जिसके चारित्रमोहकर्म के मन्दतर उदय का परिणाम संज्वलन कषायरूप होता है उसके उस काल में महाव्रत होते हैं। गृहस्थ देशव्रती के प्रत्याख्यानावरण का उदय विद्यमान है, इसलिये संज्वलन कषाय के मंद उदयरूप परिणाम बहुत कष्ट से भी होना दुर्लभ हैं और इसी कारण से समस्त पापों का त्याग होने पर भी महाव्रत नहीं होते हैं, सिर्फ महाव्रतों की कल्पना ही करते हैं। महाव्रत तो प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय का अभाव होने पर होते हैं। अब महाव्रत कैसे होते हैं ? यह श्लोक द्वारा कहते हैं : पंचानां पापानां हिंसादीनां मनोवचःकायैः । कृतकारितानुमोदैः त्यागस्तु महाव्रतं महताम् ।।७२।। अर्थ :- जो हिंसादि पांच पापों का मन-वचन-काय पूर्वक कृत-कारित-अनुमोदना द्वारा त्याग करते हैं, उन महापुरुषों के महाव्रत होते हैं। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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