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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates चतुर्थ - सम्यग्दर्शन अधिकार] [१२३ चतुर्थ - गुणव्रत अधिकार | इस प्रकार मांस आदि के त्याग रूप मूलगुण कहकर अब तीन प्रकार के गुणव्रत कहनेवाला श्लोक कहते हैं : दिग्वतमनर्थदण्डव्रतं च भोगोपभोगपरिमाणम् । ___ अनुवृंहणाद् गुणानामाख्यान्ति गुणव्रतान्यार्याः ।।६७।। अर्थ :- आर्य अर्थात् जो भगवान गणधरदेव हैं वे दिग्वत, अनर्थदण्डव्रत, भोगोपभोग परिमाणव्रत-ये तीन व्रत हैं, उन्हे अणुव्रतों को गुणाकाररूप बढ़ानेवाले होने से गुणव्रत कहते हैं। दश दिशाओं में गमन करने की मर्यादा करना वह दिग्व्रत है ।१। जिससे कुछ कार्य तो सधता नहीं है, किन्तु हमेशा पाप ही होता है, बिना प्रयोजन ही दण्ड भुगतना पड़े वह अनर्थदण्ड है। ऐसे अनर्थदण्डों का त्याग करना वह अनर्थदण्डव्रत है ।२। जो एक बार भोगने में आवे वह भोग, तथा जो बारम्बार भोगने में आवे, वह उपभोग कहलाता है। ऐसे भोग और उपभोग का परिमाण करना वह भोगोपभोग परिमाणव्रत है।। अब दिग्व्रत का स्वरूप कहनेवाला श्लोक कहते हैं : दिग्वलयं परिगणितं कृत्वातोऽहं बहिर्न यास्यामि । इति संकल्पो दिग्वतमामृत्यणुपापविनिवृत्यै ।।६८।। अर्थ :- दश दिशाओं के समूह में परिमाण करके, परिमाण की हुई सीमा से बाहर गमन नहीं करूँगा, अणुमात्र पाप की निवृत्ति के लिये भी मरण पर्यन्त संकल्प करना, वह दिग्व्रत नाम का गुणव्रत है। भावार्थ :- गृहस्थ अपना प्रयोजन जानकर कि अमुक दिशा में अमुक क्षेत्र से बाहर मेरा व्यापार व्यवहार का प्रयोजन नहीं है, तथा अमुक दिशा में उतने क्षेत्र के बाहर मुझे व्यवहार नहीं करना; इस प्रकार लोभ को घटाने के लिये तथा अहिंसा धर्म की वृद्धि के लिये विचार करके मरण पर्यन्त के लिये दशों दिशाओं में मर्यादा लेकर बाहर जाने का किसी को बुलाने का, भेजने का , वस्तु मंगाने का त्याग करके लोभ को जीतना वह दिग्वत नाम का गुणव्रत है। अब दश दिशाओं की मर्यादा किस प्रकार करना – यह बतानेवाला श्लोक कहते हैं : मकराकरसरिदटवीगिरिजनपदयोजनानि मर्यादाः । प्राहुर्दिशां दशानां प्रतिसंहारे प्रसिद्धानि ।।६९।। अर्थ :- आगम में दश दिशाओं की मर्यादारूप सीमा बांधने के लिये प्रसिद्ध तथा विख्यात समुद्र , नदी, पर्वत, वन, देश, योजन कहे हैं। समुद्र आदि लोक में विख्यात चिह्न से दिशा की मर्यादा Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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