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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
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घोर तम छाया चारों ओर, नहीं निज सत्ता की पहिचान, निखिल जड़ता दिखती सप्राण, चेतना अपने से अनजान। नहीं देखा निज शाश्वत देव, रही क्षणिका पर्यय की प्रीति, क्षम्य कैसे हों ये अपराध ? प्रकृति की यही सनातन रीति । करें क्या स्वर्ग सुखों की बात, वहाँ की कैसी अद्भुत टेव, अंत में बिलखें छह-छह मास, कहें हम कैसे उनको देव। तुम्हारा चित्-प्रकाश कैवल्य, कहें तुम ज्ञायक लोकालोक, अहो! बस ज्ञान जहाँ हो लीन. वही है ज्ञेय. वही है भोग।
-श्री युगलजी शुद्धब्रह्म परमात्मा शब्दब्रह्म जिनवाणी। शुद्धातम साधकदशा नमों जोड़ जुगपाणि ।। बहुमूल्य जगत का वैभव यह, क्या हमको सुखी बना सकता । अरे पूर्णता पाने में, क्या है इसकी आवश्यकता।। मैं स्वयं पूर्ण हूँ अपने में, प्रभु है अनर्घ मेरी माया । बहुमूल्य द्रव्यमय अर्घ लिये, अर्पण के हेतु चला आया ।। हे वीतराग सर्वज्ञ प्रभो, तुमको न अब तक पहिचाना। अतएव पड़ रहे हैं प्रभुवर चौरासी के चक्कर खाना।। पर आज समझ में आया है, कि वीतरागता धर्म अहा। राग-भाव में धर्म मानना, जिनमत में मिथ्यात्व कहा ।। वीतरागता की पोषक ही, जिनवाणी कहलाती है । यह है मुक्ति का मार्ग निरन्तर, हमको जो दिखलाती है।। चलते फिरते सिद्धों से गुरु, चरणों में शीश झुकाते हैं। हम चलें आपके कदमों पर, नित यही भावना भाते हैं ।।
-डॉ. भारिल्ल मैं कौन हूँ आया कहाँ से? और मेरा रूप क्या ? सम्बन्ध दुःखमय कौन हैं ? स्वीकृत करूँ परिहार क्या ? इसका विचार विवेक पूर्वक, शान्त होकर कीजिये । तो सर्व आत्मिक ज्ञान के, सिद्धान्त का रस पीजिये।।
- श्रीमद् राजचन्द्र
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