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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates ततिय- सम्यग्दर्शन अधिकार [१२१ प्रकाश शक्ति (१३) असंकुचित विकासत्व शक्ति (१४) अकार्यकारणत्व शक्ति (१५) परिणम्य – परिणामकत्व शक्ति (१६ ) त्यागोपादन शून्यत्व शक्ति (१७) अगुरु लघुत्व शक्ति (१८) उत्पाद व्यय ध्रुवत्व शक्ति (१९) परिणाम शक्ति (२०) अमूर्तत्व शक्ति (२१) अकर्तृत्व शक्ति (२२) अभोक्तृत्व शक्ति (२३) निष्क्रियत्व शक्ति (२४) नियत प्रदेशत्व शक्ति (२५) स्वधर्मव्यापकत्व शक्ति (२६) साधारण असाधारण साधारणासाधारण धर्मत्व शक्ति (२७) अनन्त धर्मत्व शक्ति (२८) विरुद्ध धर्मत्व शक्ति (२९) तत्त्व शक्ति (३०) अतत्त्व शक्ति (३१) एकत्व शक्ति (३२) अनेकत्व शक्ति (३३) भाव शक्ति (३४) अभाव शक्ति (३५) भाव-अभाव शक्ति (३६) अभावभाव शक्ति (३७) भाव-भाव शक्ति (३८) अभाव-अभाव शक्ति (३९) भाव शक्ति (४० ) क्रिया शक्ति (४१) कर्म शक्ति (४२) कर्तृत्व शक्ति (४३) करण शक्ति (४४) सम्प्रदान शक्ति (४५) अपादान शक्ति (४६) अधिकरण शक्ति (४७) संबंध शक्ति। - समयसार से समयसार ध्रुव अचल अनुपम सिद्ध की कर वंदना मैं स्व-परहित। यह समयप्राभूत कह रहा श्रुतकेवली द्वारा कथित।१। सदज्ञानदर्शनचरित परिणत जीव ही हैं स्व-समय। जो कर्मपुदगल के प्रदेशों में रहें वे पर-समय।। एकत्व निश्चयगत समय सर्वत्र सुन्दर लोक में । विसंवादिनी पर बंध की यह कथा ही एकत्व में ।३। सबकी सूनी अनुभूत परिचित भोग बंधन की कथा। पर से पृथक एकत्व की उपलब्धि केवल सुलभ ना।४। निज विभव से एकत्व ही दिखला रहा करना मनन। नहीं करना छलग्रहण यदि हो कहीं कुछ स्खलन ।५। न अप्रमत्त है न प्रमत्त हैं बस एक ज्ञायकभाव हैं। इस भांति कहते शुद्ध पर जो ज्ञात वह तो वही हैं ।६। दृग ज्ञान चारित जीव के हैं - यह कहा व्यवहार से। ना ज्ञान दर्शन चरण ज्ञायक शुद्ध है परमार्थ से ७। अनार्थ भाषा के बिना समझा सकें न अनार्य को। बस त्योंहि समझा सकें ना व्यवहार बिन परमार्थ को ।८। श्रुतज्ञान से जो जानते हैं शुद्ध केवल आतमा । श्रुतकेवली उनको कहें ऋषिगण प्रकाशक लोक के ।९। जो सर्वश्रुत को जानते उनको कहें श्रुतकेवली। सब ज्ञान ही है आतमा बस इसलिये श्रुतकेवली १०। शुद्धनय भूतार्थ है अभूतार्थ हैं व्यवहारनय । भूतार्थ की ही शरण गह यह आतमा सम्यक् लहे ।११। परमभाव को जो प्राप्त है वे शुद्ध नय ज्ञातव्य हैं । जो रहें अपरमभाव में व्यवहार से उपदिष्ट हैं ।१२। चिदचिदात्रव पाप-पुण्य शिव बंध संवर निर्जरा । तत्वार्थ ये भूतार्थ से जाने हुए सम्यक्त्व हैं ।१३। अबद्धपुट्ठ अनन्य नियत अविशेष जाने आत्म को । संयोग विरहित भी कहे जो शुद्धनय उसको कहें ।१४। अबद्धपट्ट अनन्य अरु अविशेष जाने आत्म को । द्रव्य एवं भावश्रुतमय सकल जिनशासन लहे ।१५। चारित्र दर्शन ज्ञान को सब साधुजन सेवें सदा । ये तीन ही हैं आतमा बस कहे निश्चयनय सदा १६ । उपासना केवल-रवि किरणों से जिसका, सम्पूर्ण प्रकाशित है अन्तर। उस श्री जिन-वाणी में होता, तत्वों का सुन्दरतम दर्शन ।। सद्दर्शन-बोध-चरण-पथ पर, अविरल जो बढ़ते हैं मुनिगण। उन देव ,परम-आगम, गुरु को, शत-शत वन्दन,शत-शत वन्दन ।। स्याद्वादमयी तेरी वाणी, शुभनय के झरने झरते हैं। उस पावन नौका पर लाखों, प्राणी भव-वारिधि तिरते हैं ।। करते तप शैल-नदी-तट पर, तरू-तल वर्षा की झड़ियों में। समता-रस-पान किया करते, सुख-दुख दोनों की घड़ियों में।। निज वज़ पौरूष से प्रभो! अन्तर-कलुष सब हर लिये, प्रांजल प्रदेश-प्रदेश में, पीयूष निर्झर झर गये। सर्वोच्च हो अतएव बसते लोक के उस शिखर से ! तुम को हृदय में स्थाप, मणि-मुक्ता चरण को चूमते। विज्ञान नगर के वैज्ञानिक, तेरी प्रयोगशाला विस्मय, कैवल्य-कला में उमड़ पड़ा, सम्पूर्ण विश्व का ही वैभव । पर तुम तो उससे अति विरक्त, नित निरखा करते निज निधियां, अवएव प्रतीक प्रदीप लिये, मैं मना रहा दीपावलियाँ । निज लीन परम स्वाधीन बसो, प्रभु! तुम सुरम्य शिव-नगरी में, प्रति पल बरसात गगन से हो, रसपान करो शिव गगरी में। ये सुर तरुओं के फल साक्षी, यह भव-संतति का अंतिम क्षण, प्रभु! मेरे मंडप में आओ, है आज मुक्ति का उद्घाटन । Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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