________________
१२०]
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
बारह भावना
।
।
।
।
।
।
भोर की स्वर्णिम छटा सम क्षणिक सब संयोग हैं सान्ध्य दिनकर लालिमा सम लालिमा है भाल की अंजुली - जल सम जवानी क्षीण होती जा रही काल की काली घटा प्रत्येक क्षण मंडरा रही । जिन्दगी इक पल कभी कोई बढ़ा नहीं पायगा । सत्यार्थ है बस बात यह कुछ भी कहो व्यवहार में मंथन करे दिन-रात जल घृत हाथ में आवे नहीं सद्भाग्य बिन ज्यों संपदा मिलती नहीं व्यापार में आनन्द का रसकन्द सागर शान्ति का निज आतमा । जीवन-मरण सुख - दुःख सभी भोगे अकेला आतमा। जिस देह में आतम रहे वह देह भी जब भिन्न है । हैं भिन्न परिजन भिन्न पुरजन भिन्न ही धन-धाम हैं। जिस देह को निज जानकर नित रमरहा जिस देह में। जिस देह में अनुराग है एकत्व है जिस देह में। संयोगजा चिवृत्तियाँ भ्रमकूप आस्त्रवरूप हैं । संयोग विरहित आतमा पावन शरण चिरूप है । इस भेद से अनभिज्ञता मद मोह मदिरा पान है इस भेद की अनभिज्ञता संसार का आधार है । देह देवल में रहे पर देह से जो गुणभेद से भी भिन्न है पर्याय से पार है । में हूँ वही शुद्धात्मा चैतन्य का मार्तण्ड हूँ । मैं ध्येय हूँ श्रद्धेय हूँ मैं ज्ञेय हूँ मैं ज्ञान हूँ । वैराग्यजननी राग की विध्वंसनी है निर्जरा । तप त्याग की सुख-शान्ति की विस्तारनी है निर्जरा । निज आतमा के भान बिन षट्द्रव्यमय इस लोक में। कराता रहा नित संसरण जगजालमय गति चार में । इन्द्रियों के भोग एवं भोगने की भावना । है महादुर्लभ आत्मा को जानना पहिचानना । निज आतमा को जानना पहिचानना ही धर्म है शुद्धातमा की साधना आराधना का मर्म है
।
।
भी
।
।
भिन्न है
श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
पद्मपत्रों पर पड़े जलबिन्दु सम सब भोग हैं ।
सब पर पड़ी मनहूस छाया विकट काल कराल की ।। प्रत्येक पल जर्जर जरा नजदीक आती जा रही ।। किन्तु पल-पल विषय - तृष्णा तरुण होती जा रही । । १ । । रस रसायन सुत सुभट कोई बचा नहीं पायगा ॥ जीवन-मरण अशरण शरण कोई नहीं संसार में ।।२।। रज-रेत पेले रात-दिन पर तेल ज्यों पाये नहीं ।। निज आतमा के भान बिन त्यों सुख नहीं संसार में ।। ३ ।। सब द्रव्य जड़ पर ज्ञान का घनपिण्ड केवल आतमा शिव-स्वर्ग नर्क - निगोद में जावे अकेला आतमा ।।४।। तब क्या करें उनकी कथा जो क्षेत्र से भी अन्य हैं ।। हैं भिन्न भगिनी भिन्न जननी भिन्न ही प्रिय वाम है ।।५।। जिस देह को निज मानकर रच-पच रहा जिस देह में ।। क्षण एक भी सोचा कभी क्या क्या भरा उस देह में ।। ६ ।। दुःखरूप है दुःखकरण है अशरण मलिन जड़रूप हैं ।। भ्रमरोगहर संतोषकर सुखकरण है सुखकर है ।। इस भेद को पहिचानना ही आत्मा का भान है ।। इस भेद की नित भावना ही भवजलधि का पार है ।।७।। है राग जिसमें किन्तु जो उस राग से भी अन्य है ।। जो साधकों की साधना का एक ही आधार है ।। आनन्द का रसकन्द हूँ में ज्ञान का घनपिण्ड हूँ ।। बस एक ज्ञायकभाव हूँ मैं, मैं स्वयं भगवान हूँ ।।८।। है साधकों की संगिनी आनन्दजननी निर्जरा ॥ संसार पारावार पार उतारनी है निर्जरा ।।९।। भ्रमरोगवश भव-भव भ्रमण करता रहा त्रैलोक्य में ।। समभाव बिन सुख रंच भी पाया नहीं संसार में ।।१०।। है सुलभ सब दुर्लभ नहीं है इन सभी का पावना ।। है महादुर्लभ आत्मा की साधना आराधना ।। ११ । । निज आतमा की साधना आराधना ही धर्म है ।। निज आतमा की ओर बढती भावना ही धर्म है ।।१२।।
डॉ. भारिल्ल
अनेकान्तस्वरूप आत्मा की शक्तियाँ
(१) जीवत्व शक्ति (२) चिति शक्ति (३) दृशि शक्ति (४) ज्ञान शक्ति (५) सुख शक्ति (६) वीर्य शक्ति (७) प्रभुत्व शक्ति (८) विभुत्व शक्ति (९) सर्वदर्शित्व शक्ति (१०) सर्वज्ञत्व शक्ति (११) स्वच्छत्व शक्ति ( १२ )
Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com