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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
धर्म में ही प्रवृत्ति करने का परिणाम है। जैसे मुनीश्वरों को यत्नाचारपूर्वक आहार देते हुये गृहस्थ के हिंसा नहीं होती है, जैसे नित्य विहार करते हुये ईर्यापथ शोधकर गमन करते हुये मुनीश्वरों के हिंसा नहीं होता है। मुनीश्वर नित्य उपदेश करते हैं, गमन करते हैं, शयन करते हैं, उठते हैं, बैठते हैं, आहार करते हैं, नीहार करते हैं, वंदना करते हैं, कायोत्सर्ग करते हैं, तीर्थ वंदना-गुरु वंदना को जाते हैं - उन कार्यों में हिंसा के परिणाम बिना जीव की विराधना होने पर भी हिंसा नहीं होती है - हिंसाकृत बंध नहीं होता है।
जीवों से तो धरती, आकाश, सभी पदार्थ भरे हैं, परन्तु जो कषाय के वश होकर सम्पूर्ण दयाभाव से रहित होकर प्रवर्तन करेगा उसके परिणामों में दया नहीं है। हिंसाभाव और अहिंसाभाव तो जीव के परिणाम हैं, वे परिणाम बाहर के जीव के घात या अघात के अधीन नहीं है। इसका वर्णन पहले किया जा चुका है।
अब यहाँ मंदिर बनवाने वालों के परिणामों के संबंध में विचार करो। जिसको हवेली बनवाने में, बाग बनवाने में, कआ-बावडी बनवाने में महाहिंसा दिखाई देती है. तथा जिसका लोभ घटा है, धन से ममता टूटी है, जो पाप से भयभीत हुआ है, वह मंदिर बनवाता है। पहले जब वह गृहस्थी के व्यापारों में प्रवर्तन करता था, तब दया धर्म को याद भी नहीं करता है। ___अब सभी कार्यों में धर्मपूर्वक ही परिणाम करता है - वैसे ही सभी कार्यों में यत्नाचार पूर्वक वर्तता है। यह मंदिर का काम है सो पानी दुहरे मोटे कपड़े से छान-छान कर लगाता है, कलई-चूना तगार दो दिन से अधिक नहीं रखता है, दो दिनों में ही उठाकर समाप्त कर देने का प्रयत्न करता है। उठाना, रखना, धरना, इनमें अपने परिणाम तो यही रखता है कि यत्न से करो, जीवों की विराधना न होवे; इत्यादि कार्यों में हिंसा का परिणाम तो नहीं करता है। उसका अपना परिणाम तो धर्म का आयतन बनवाने का है, यदि यह धर्म का स्थान मंदिर बन जायगा तो इसमें अखण्ड अहिंसा धर्म प्रवर्तेगा।
यह मंदिर है, सो महान धर्म का आयतन है। जिसने गृह संबंधी बहुत हिंसा के आरम्भ घटाकर परिणामों में दयारूप प्रवर्तन करने में यत्न किया है, वह मंदिर में पग धरते ही ईर्यापथ सोधकर चलता है - यह मंदिर है यहाँ किसी की विराधना नहीं हो जाये। मंदिर में प्रवेश करने के पश्चात् जैनियों के इतनी बातों का त्याग तो बिना कहे ही होता है: भोजन का त्याग, पानी पीने का त्याग, विकथा का त्याग, गाली का त्याग, पंखे की हवा लेने का त्याग, व्यापार की वार्ता करने का त्याग इत्यादि पापबन्ध के कारण सभी दुराचारों का त्याग हो जाता है। ( ८४ आसादना दोषों का त्याग होता है)।
इसलिये जिन मंदिर तो सभी प्रकार से अहिंसा धर्म का ही प्रवर्तक जानना, जिसमें आरम्भ , विषय , कषायों के त्याग करने की ही महिमा है।
तृतीय - अणुव्रत अधिकार
समाप्त
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