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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates तृतिय - सम्यग्दर्शन अधिकार] [११७ तो जगत में मेरा निंदा होगी। मैं अभक्ष्य भक्षण कैसे करूँ ? झूठ कैसे बोलूँ ? व्यसनों में प्रवृत्ति कैसे करूँ ? कलह करना, गाली देना, लोक निंद्य कर्म करना - ये अयोग्य दुराचार तो लोक लाज के कारण ही अत्यन्त दूर चला जाता है। परिणाम ऐसे हो जाते हैं कि – यदि में मंदिर बनवानेवाला ही न्याय और सदाचार रूप से प्रवर्तन नहीं करूँगा तो और कौन प्रवर्तन करेगा ? ऐसा विचार करके वह अभिषेक में, जिन पूजन में, शास्त्र-श्रवण में, जाप में, व्रत में, जागरण में, भजन में प्रवर्तन करने लग जाता है। उसे धर्म में प्रीति अधिक बढ़ जाती है, शास्त्र के वांचनेवालों से, शास्त्र सुननेवालों से, धर्म में प्रीति करनेवाले साधर्मियों से, सिद्धान्त की चर्चा करनेवालों से अनुराग बढ़ता चला जाता है। पढ़नेवालों को देखकर बहुत हर्ष होता है। आज मंदिर में पजन किस-किसने की. दर्शन करने कौन-कौन आया है. यहाँ व्याख्यान में कौन-कौन सुनने बैठता है, आज उपवास करनेवाले कितने हैं, इसबार बेला-तेला किस-किसने किया है, प्रोषधोपवास वाले कितने है, जागरण में कितने स्त्री-पुरुष आते हैं, भजन-गान बहुत सुंदर हुये-ऐसी धर्म की प्रवृत्ति देखकर उसे बहुत आनंद बढ़ता है। सभी साधर्मियों में वात्सल्यता दिन प्रतिदिन बढ़ती जाती है, हजारों स्त्री-पुरुषों में धर्म का प्रभाव जैसे-जैसे प्रकट बढ़ता चला जाता है वैसे-वैसे उसका धर्मानुराग भी बढ़ता चला जाता है। _ गृहाचार के नुकता, व्योहार, विवाह करना, वस्त्र बनवाना, आभरण बनवाना, अपने रहने की जगह में मकान बनवाना, चित्राम करवाना, सोना लगवाना, इत्यादि राग के बढ़ाने वाले पाप कार्यों में तो प्रीति घटती जाती है। अब इन्हें करने से क्या प्रयोजन है, कौन को दिखाना है ? ये सभी कार्य पाप के कारण हैं, निंद्य है, ऐसा वैराग्य आ जाता है। शर्म लगती है कि इन पाप के कार्यों को कहाँ-किसे दिखाऊँ ? यदि इतना धन मंदिर में लगा दं तो बहत जीवों का बहत समय तक धर्म में अनराग बढ जायेगा - ऐसा विचार करके जो भी धन खर्च करता है वह मंदिर के उपकरणों में, सिंहासन, छत्र, चमर, भामण्डल, घंटा, ठोना, कलश, थाल , रकाबी, झारी, समोशरण आदि अनेक उपकरण स्वर्ण, चांदी, कांसा, पीतल के उपकरणों में धन लगाकर अपना तथा धर्मात्मा लोगों का धर्म में अनुराग बढ़ाता है। गदेला, चांदनी, पर्दा, सायवान, बिछावन इत्यादि द्वारा साधर्मी धर्म सेवन करनेवालों की बड़ी वैयावृत्य होती है। विवाह आदि में खर्च किये धन से ऐसी कीर्ति उच्चपना प्रकट नहीं होता जैसा मंदिर बनवानेवाले का बहुत समय तक यश प्रकट होता है। अपने देश व अन्य देशों के बहुत लोग पूजन, प्रभावना, दर्शन, धर्म-श्रवण करके महान पुण्य उपार्जन करते हैं। यहाँ कोई कहता है - मंदिर बनवाना, उपकरण बनवाकर जिनमंदिर में रख देना – यह कार्य अपना तथा अन्य का उपकार तो करते हैं, परन्तु मंदिर बनवाने में छहकाय के जीवों की हिंसा तो धर्म का घात करनेवाली ही होती है। ऐसा कहनेवाले को उत्तर देते हैं - इसमें हिंसा नहीं होती है। हिंसा तो जब अपने जीवघात करने के परिणाम होंगे तब होगी। मंदिर बनवाले वाले के हिंसा करने के परिणाम नहीं है, अहिंसा Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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