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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार ११६] तीन लोक के ऊपर हो जाये, पत्थर का भारी गोला जल में तैरने लग जाये, अग्नि में कमल उत्पन्न होने लगे, सूर्य के अस्त होने पर प्रातः काल होने लगे, सर्प के मुख में अमृत पैदा होने लगे, कलह करने से यश होने लगे, अजीर्ण से रोग मिटने लगे, कालकूट जहर खाने से जिंदगी लम्बी होकर बढ़ने लगे, वाद-विवाद करने से प्रेम बढ़ने लगे, तो भी हिंसा से धर्म नहीं होता। जगत में ये (१३) नहीं होने योग्य कार्य भी होने लग जाये तो भी हिंसा के परिणाम से तो किसी देश में किसी काल में किसी को भी धर्म न हुआ है, न हो रहा है, न होगा। जिनमंदिर बनाने की प्रेरणा : अब यहां कोई आंशका करता है कि - यदि गृहस्थ जिनमंदिर बनवाता है, उपकरण बनवाता है, जिनेन्द्र पूजा करता है तो इनमें भी आरम्भ ही होता है; जहाँ आरंभ है, वहाँ हिंसा होता ही है। इसलिये जिनमंदिरादि बनवाने में धर्म होना कैसे सम्भव है ? उसे उत्तर देते हैं - यदि गृहस्थ ने आरम्भ करने का त्याग कर दिया है तथा जिसके परिणाम वीतरागतारूप होकर धन उपार्जन आदि करने से विरक्त हो गये हैं, उसे मंदिर आदि का बनवाना योग्य नहीं है। परन्तु जिनका राग धन से परिग्रह से आरंभ से घटा नहीं है, अभिमान घटा नहीं है, अपनी जाति कुल आदि में ऊँचा होने के लिये अभिमानपूर्वक प्रशंसा पाने के लिये अपने भोगों के निमित्त हवेली, महल, चित्रशाला आदि बनवाता है,बाग बनवाता है; अपने विहार करने के लिये अनेक स्थान बनवाता है; संतान आदि के विवाह आदि में बहुत धन खर्च करता है; जाति कुल, नगर निवासी आदि को भोजन जिमाता है; उन्हें कोई धर्मात्मा शिक्षा देता है: यदि तुम्हारा आरम्भ आदि से राग नहीं घटा है तो ये केवल पापबन्ध के कारण, अभिमान आदि के पुष्ट करने वाले पाप के आरम्भों को त्याग कर जिनमंदिर बनवाने का आरंभ करो, उसके प्रभाव से तुम्हारा अशुभ राग घट जायगा; भविष्य में तुम्हारे परिणाम वीतरागता के सम्मुख हो जायगें; अहिंसा धर्म का प्रवर्तन बढ़ जायेगा; अनेक जीव स्वाध्याय करके, शास्त्र श्रवण करके, वीतराग जिनेन्द्र देव के दर्शन करके, भावना बढ़ाकर, पापाचार रोकने लगेंगे; शील संयम, ध्यान की वृद्धि इत्यादि उत्तम कार्यों को करके धर्म की वृद्धि करेंगे। जिनमंदिर अहिंसाधर्म का आयतन है। जिनमंदिर के निमित्त से अनेक जीव पापाचार छोड़कर जिन मंदिर में आते हैं, वहाँ जिनधर्म के शास्त्र श्रवण करते हैं, उससे अपना तथा परद्रव्यों का भेदविज्ञान उत्पन्न होता है; मिथ्यादेव, मिथ्यागुरु, मिथ्याधर्म की उपासना छोड़कर सर्वज्ञ वीतराग के बताये धर्म में प्रवर्तन करते हैं, तब हिंसादि पापों से, सप्त व्यसनों से, अन्याय से, अभक्ष्य से विरक्त होकर, वीतराग जिनेन्द्रदेव के ध्यान में, पूजन में, कायोत्सर्ग में, सामायिक में, उपवास, शील, संयम, दान, व्रत प्रभावना में लीन होकर मोक्ष में प्रवर्तन करने लग जाते हैं। अतः ऐसा निश्चित जानना कि जिनमंदिर के निमित्त बिना मोक्षमार्ग ही नहीं प्रवर्तता है। जिस पुरुष ने जिनमंदिर बनवाया उसने बहुत जीवों का उपकार किया तथा स्वयं का भी बहुत उपकार होता है। जिनमंदिर बनवानेवाले के स्वयं के परिणाम भी सीधे सही मार्ग में लग जाते हैं। वह विचार करता है - मैंने वीतराग जिनेन्द्र का मंदिर बनवाया है और अब यदि में अन्याय के मार्ग पर चलूँगा Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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