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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार १०८] मिलता है तो भी धर्मात्मा समता को नहीं छोड़ते हैं। पूर्व में तिर्यंचों के भव में कभी पेटभर भोजन मिला ही नहीं, तथा भूख प्यास के मारे अनेक बार मरे हैं। अतः अब धैर्य धारण करके जिस तरह हमारा धर्म नहीं छूटे, उस प्रकार यत्न करना चाहिये। जिनके परिणामों में इतनी बढ़ता प्रकट होती है वे स्वर्ग लोक में महान ऋद्धिधारी देव होते हैं। ___ कोई यह कहता है - यदि आप अकेले हो तो ऐसी दृढ़ता पकड़ कर समता रख ले, परन्तु जिसके ऊपर कुटुम्ब का भार हो तो वह क्या करे ? वह कुटुम्ब से इस प्रकार कहे - हे कुटुम्ब के लोगो ! आपने पूर्व जन्म में दान नहीं दिया, व्रत पालन नहीं किया, अभक्ष्य भक्षण किया, अन्याय से दूसरों का धन ग्रहण किया, उस पाप के उदय से ऐसे दरिद्री हुए कि पेटभर भोजन तथा वस्त्र भी नहीं मिला यह सब अपने-अपने किये पाप का फल है। यदि अब भी अन्य पुण्यवानों के आभरण, वस्त्र, भोजन आदि देखकर दुःखी होओगे तो आगे भी केवल तिर्यंच गति के घोर दुखों का कारण पाप कर्मबन्ध करोगे तथा करोड़ो भवों तक दारिद्र के दुख का कारण पापबंध करोगे। पर की सम्पदा आप के पास नहीं आ जायगी। क्लेश, दुर्ध्यान, तृष्णा आदि करने से दुख नहीं मिटेगा किन्तु दुःख अधिक बढ़ेगा। यदि थोड़े प्राप्त धन में ही संतोष करके निर्वाछक होओगे तो वर्तमान में तो दुख ही नहीं व्यापेगा व समस्त पाप कर्म की ऐसी निर्जरा होगी जो घोर तपश्चरण से भी नहीं होती है। थोड़ा वस्त्र-भोजन आदि मिलने पर परिणामों में आकुलता रहित समता से रहने में बड़ा तप है। कर्म ने मुझे आपके साथ में कुटुम्ब में शामिल उत्पन्न किया है। इसलिये में अब दैव (भाग्य) तथा पुरुषार्थ दोनों के अनुकूल द्रव्य उपार्जन करने में उद्यम कर रहा हूँ; लाभान्तराय के क्षयोपशम के अनुसार न्यायमार्ग से जो प्राप्त होता है, वह तुम्हारे पास लाता हूँ; इसमें से जो हमारे हक का हिस्सा हो, वह हमें दे दो, तुम्हारा जो हो वह तुम मिलबांट कर भोजन आदि करो। हमने तो अब भगवान का कहा हुआ दुर्लभ धर्म ग्रहण किया है, अतः तुम्हारे लिये अब अनीति, कपट आदि घोर पाप करके धनग्रहण नहीं करेंगे; न्याय नीति से जिस प्रकार धर्म नहीं बिगड़े, उस प्रकार उद्यम करके उपार्जन करेंगे। तुम भी हमारा धर्म जिससे बिगड़ता हो, वैसा प्रवर्तन नहीं करो। अपने-अपने पुण्यपाप का फल भोगो। आकुलता छोड़कर जितना मिले उतने में संतोष रखकर सुखपूर्वक रहो। इस प्रकार का जिसे निश्चय है, उसके परिग्रह परिमाण नाम का स्थूल व्रत होता है। जो कुटुम्ब के पोषण के लिये पाप क्रिया में प्रर्वतता है; हिंसा, असत्य, चोरी, कपट इत्यादि पापों में प्रर्वतता है उसे, घोर पाप का बन्ध होता है; पाप से दुर्गति का पात्र होता है। इसलिये इस अल्प जीवन में व्रत, शील, संयम में ही दृढ़ता रखनी चाहिये। कितने ही लोग कहते हैं – धन तो पाप से ही आता है, पाप किये बिना धन आता ही नहीं है; त्यागी-व्रती हो जाने से धन कैसे आयेगा ? Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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