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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates तृतिय - सम्यग्दर्शन अधिकार ]
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यहां कोई प्रश्न करता है - यह आजीविका तो पूर्व पुण्य के आधीन है, धर्म सेवन करना अपने अधीन है ?
उसे उत्तर देते हैं - यहां आजीविका पूर्व पुण्य कर्म के ही आधीन है, परन्तु धर्म ग्रहण हो जाना भी पुण्य कर्म की सहायता के बिना नहीं हो सकता है। धर्म ग्रहण करने की योग्यता के लिये भी इतनी सामग्री तो आवश्यक ही है उत्तम कुल जन्म प्राप्त होना, क्योंकि चाण्डाल, चमार, भील, शूद्र आदि के कुल में धर्म का लाभ कैसे होगा ? तथा उत्तम देश में उत्पन्न होना, इंद्रियों की पूर्णता पाना, निरोग शरीर मिलना, शुभ संगति मिलना, आजीविका की स्थिरता पाना, सम्यग् धर्म का उपदेश मिलना इत्यादि पुण्यकर्म के उदय जनित बाह्य सामग्री पाये बिना धर्मग्रहण तथा धर्मसेवन नहीं हो सकता है। इसलिये जिसको पूर्व पुण्य के उदय से आजीविका की स्थिरता होती है, उसी को धर्म सेवन की योग्यता होती है।
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जिसे इंद्रियों की पूर्णता हो, निरोगता हो, न्याय-अन्याय का विवेक हो, धर्म-अधर्म योग्य-अयोग्य का विवेक हो, प्रिय वचन बोलता हो, विनय हो, दूसरों के धन तथा दूसरों की स्त्रियों से पराङ्मुखता हो, आलस्य प्रमाद रहित हो, धीर हो, देशकाल के योग्य वचन बोलता हो, उसे आजीविका का लाभ और धर्म का लाभ हो ही जाता है ।
गुणवान को, निर्लोभी को, आलस्य रहित उद्यमी को, विनयवान को जीविका की प्राप्ति दुर्लभ नहीं है। स्वयं जीविका के योग्य पात्र बन जाओ तो जीविका कभी दूर नहीं रह सकती है। लाभांतराय कर्म के क्षयोपशम के अनुसार आजीविका थोड़ी या बहुत नियम से बन ही जाती है। उसमें संतोष धारण करके अधिक में वांछा का त्याग करके परिग्रह परिमाणव्रत धारण करना चाहिये ।
पुण्य के उदय के आधीन आजीविका प्राप्त हो जाय तो अनीति में प्रवृत्ति करके आजीविका को नष्ट नहीं करना चाहिये । यदि आजीविका नष्ट हो जायेगी तो धर्म और यश नष्ट हो जायगा। अपने भावों में से यदि नीति-धर्म नहीं छोड़ोंगे, न्यायमार्ग पर चलोगे फिर भी असाताकर्म के उदय से अग्नि से, जल से, चोरों से, राजा के उपद्रव से आजीविका बिगड़ जाय तथा धन बिगड़ जाय तो धर्म नहीं बिगड़ेगा, यश नहीं बिगड़ेगा, जगत में अप्रतीति के पात्र नहीं होओगे। यदि प्रबल लाभान्तराय के उदय से न्यायरूप उद्यम करने पर भी लाभ नहीं होवे तो समता ही ग्रहण करना चाहिये । यदि आयुकर्म बाकी है तो भोजन आदि की विधि कर्म मिला देगा, कर्म बलवान है, वन में, पहाड़ में, जल में, नगर में अपने अंतराय कर्म के क्षयोपशम के अनुसार भोजन सबको मिलता हे।
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किसी का पुण्य का उदय तो ऐसा होता है कि वह बहुत लोगों को भोजन आदि देकर स्वयं भोजन करता है; किसी का अंतराय का उदय ऐसा होता है कि वह अपना पेट भी नहीं भर सकता है । किसी को आधा पेट भरने लायक मिलता है; किसी को एक दिन मिलता है किसी को एक दिन नहीं मिलता है; किसी को दो दिन के अंतर से, किसी को तीन दिन के ( अंतर से नीरस भोजन
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