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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
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किसी भी देश में किसी भी काल में स्थिर नहीं रहेंगे। देह की रक्षा भी आजीविका के बिना नहीं होती है। देह बिना अणुव्रत, शील, संयम किससे होगा ? इसलिये अपने पुण्य की अनुकूलता, उद्यम, सामर्थ्य, सहायक, साधन आदि देश काल के योग्य विचार करके न्यायमार्ग से आजीविका करते हुए धर्मसेवन करना चाहिये । अहिंसापूर्वक, सत्यमार्ग पर चलते हुए, दूसरे का बिना दिया हुआ धन लेने का त्याग करके, अपने को जगत के लोगों के विश्वास आने योग्य पात्र बनाना चाहिये ।
विद्या, कला, चातुर्य द्वारा अपने द्वारा होने योग्य आजीविका करना चाहिये । पश्चात् लाभान्तराय के क्षयोपशम के अनुसार लाभ - अलाभ - अल्पलाभ जितना जो हो उतने में ही सन्तोष करना चाहिये। कुटुम्ब का पोषण, देह का पोषण पुण्य के उदय से जो प्राप्ति हुई हो, उसी के अनुसार करो । कर्जदार नहीं होना, क्योंकि ऋण लेने के पश्चात् समस्त धीरज, प्रतीति का अभाव हो जाता है, दीनता प्रकट होने लगती है; तथा एक बार अपनी प्रतीति बिगड़ जाने के बाद पुन: उत्तम आजीविका बनाना कठिन होता है।
आजीविका के अनुकूल खर्च करना चाहिये । पुण्यवानों को देखकर अधिक खर्च करोगे तो यश, धर्म, नीति- तीनों ही नष्ट हो जायेंगे । अन्य पुण्यवानों का खर्च देखकर बराबरी करोगे तो दरिद्री होकर दोनों लोकों से भ्रष्ट हो जाओगे । यदि यह जानते हो कि हमारी बड़ी इज्जत है, हमारे पूर्वजों ने बड़े-बड़े कार्य किये हैं, अब खर्च कम कैसे कर दें ? यदि हम खर्च कम करेंगे तो हमारा समस्त बड़ाप्पन बिगड़ जायेगा ? ऐसी बुद्धि मत करो। यदि पुण्य अस्त हो गया, तब बड़ाप्पन कहां रह जायेगा ? बड़ाप्पन तो सत्य से, संतोष से, शील से, विनय से, दीनता रहित होने से, इंद्रियों के विषयों की चाह घटाने से है; इनसे ही दोनों लोकों में उज्ज्वलता होती है।
पुण्य का उदय आ जाय तो जीव को स्वर्ग का महर्द्धिक देब बना दे, चक्रवर्ती बना दे। यदि पाप का उदय आ जाय तो नरक का नारकी बना दे, एक इंद्रिय बना दे, भार ढोने वाला बना दे, रोगी बना दे, दरिद्री मनुष्य बना दे, तिर्यंच बना दे, इसी भव में राजा से रंक हो जाता है। कौन से बड़ाप्पन को देखते हो? यदि अपने पास थोड़ा धन है, किन्तु अभिमानी होकर अधिक धन खर्च करोगे तो दरिद्री और ऋणवान - दीन होकर सभीजनों से नीचे हो जाओगे, निंद्यता को प्राप्त होकर आर्तध्यान करके दुर्गति के पात्र हो जाओगे।
अतः आजीविका से जितनी आमदनी होती हो उससे कम खर्च करना चाहिये, यही चतुराई है, यही पंडितपना है। जो आमदनी से कम खर्च करना है, वही कुलवानपना है, वही उत्तम धर्म है। यदि आमदनी से खर्च बढ़ाओगे तो अपनी ही बुद्धि से दरिद्री होकर मूर्खता दिखाओगे, फिर ऋणवान हो जाओगे तब उत्तम कुल योग्य आदर, सत्कार, सभी नष्ट हो जायगा और मलिनता प्रकट हो जायगी। निर्धन तथा ऋणवान होने के पश्चात् पूजन, स्वाध्याय, ध्यान, शुभ भावनाओं में बुद्धि नहीं लगेगी।
आचरण,
इसलिये आजीविका से कम खर्च करना ही गृहस्थ की परम योग्य नीति है। जो अभिमानी होकर अधिक खर्च करता है उसका चित्त दूसरे के बिना दिये धन पर चला जाता है, चोरी करने लगता है, अनेक असत्य -कपट आदि पापों में प्रवत्ति हो जाती हे, संतोष धर्म नष्ट हो जाता है।
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