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उसे उत्तर देते हैं - ये बाह्य परिग्रह अंतरंग परिग्रह के निमित्त हैं । इन बाह्य परिग्रहों का देखना, सुनना, विचार करना शीघ्र ही परिग्रह में लालसा उत्पन्न करा देता है, ममता उत्पन्न करा देता है, अचेत कर देता है। इसलिये बहिरंग परिग्रह भी मूर्च्छा का कारण होने से त्यागने योग्य है।
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अंतरंग-बहिरंग दोनों प्रकार के परिग्रह को ग्रहण करने में भगवान ने हिंसा कही है। दोनों प्रकार के परिग्रह का त्याग ही अहिंसा है ऐसा परमागम के जाननेवाले कहते हैं । मिथ्यात्व-कषाय आदि अंतरंग परिग्रह तो हिंसा के ही दूसरे पर्यायवाची नाम हैं। बाह्य परिग्रह में मूर्च्छा होना वह भी हिंसा ही है । ये कृष्ण, आदि लेश्या के अशुभ परिणाम भी परिग्रह में राग करने से ही होते हैं, क्योंकि परिणामों में शुद्धता मंद कषाय द्वारा होती है, तथा वह कषाय की मंदता परिग्रह के अभाव से होती है।
बहुत बड़ा आरंभ भी परिग्रह की अधिकता से ही होता है। ऐसा जानकर यदि समस्त परिग्रह छोड़ने का राग नहीं घटा है तो परिग्रह में अपनी आवश्यकता अनुसार परिमाण करके तो अवश्य रहना चाहिये ।
यदि अपने पास आज परिग्रह तो थोड़ा है तथा वांछा अधिक परिग्रह की हो रही है, तो इस वांछा करने से परिग्रह प्राप्त नहीं हो जायगा । वांछा करने से तो और अधिक पाप कर्म का बंध ही होगा । परिग्रह का लाभ तो अंतराय कर्म का क्षयोपशम होने पर होगा । इसलिये पाप बंध का कारण परिग्रह की ममता छोड़कर, जितना प्राप्त हुआ उतने में ही सन्तोष धारण करके रहना चाहिये ।
न्याय-नीति पूर्वक ही आजीविका करना
यहाँ ऐसा विशेष जानना यद्यपि परिग्रह तो सभी त्यागने योग्य है, परन्तु जो गृहस्थपने में रहकर धर्म सेवन करना चाहता है उसे तो अपने पुण्य के उदय के अनुकूल परिग्रह रखना ही चाहिये । यदि गृहस्थ के आवश्यक परिग्रह नहीं होगा तो काल - दुःकाल में, रोग-वियोग में, ब्याह में, मरण में, परिणाम ठिकाने - स्थिर नहीं रहेंगे, परिणाम बिगड़ जायेंगे। इसलिये धर्म-परिणामों की रक्षा के लिये गृहस्थ परिग्रह का संचय करता ही है।
आजीविका का उपाय न्यायमार्ग से ही करना चाहिये । साधु तो परिग्रह थोड़ा सा भी रखे तो दोनों लोकों से भ्रष्ट हो जाता है, गृहस्थ परिग्रह नहीं रखे तो भ्रष्ट हो जाता है। गृहस्थाचार में रहते हुए तो थोड़ा व अधिक आवश्यकता अनुसार परिग्रह के बिना परिणामों में समता नहीं रहती है। यदि आजीविका नहीं हो तो निराधार के परिणाम धर्मसेवन में ठहर नहीं सकेंगे, परिणामों की तीव्र आर्ति-संक्लेशता नहीं मिटेगी।
भोजन - पान मिलने योग्य आजीविका की स्थिरता के बिना स्वाध्याय में, पूजन में, शुभ कार्यों में परिणाम स्थिर नहीं हो सकते; आकुलता होने से संक्लेश बढ़ता जायगा, संतोष नहीं हो पायेगा। रोग आने पर, वृद्धावस्था आने पर, इष्ट का वियोग होने पर, अन्न-वस्त्र के आधार बिना अपने परिणाम
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