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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार १०४] अर्थ :- इस जगत में स्त्रियों के वश में कौन नहीं है ? काम विकार ने किसका मान खण्डन नहीं किया है ? इंद्रियों द्वारा कौन नहीं जीता गया है ? कषायों से संतप्त कौन नहीं सभी संसारी जीव स्त्रियों के वश में हो रहे हैं। कामविकार ने सभी संसारी जीवों का मान खण्डन किया है। सभी संसारी जीव इंद्रियों द्वारा वशीभूत होकर पराधीन हो रहे हैं। सभी प्राणी चारों कषायों से जल रहे हैं। जो पुरुष अंतरंग और बाह्य समस्त ही परिग्रह को ग्रहण नहीं करता है, वही स्त्रियों के वश नहीं है, वही इंद्रियों के अधीन नहीं है, उसी को मोह ने नहीं जीत पाया है। उसी का काम विकार द्वारा मान खण्डन नहीं हुआ है, वही कषायों में नहीं जल रहा है। ___ जो पुरुष लोभ को नष्ट करके, संतोषरूप रसायन (दवा) के द्वारा आनंदित होकर, समस्त धन सम्पत्ति को विनाशीक मानकर दुष्टा तृष्णा को - आगामी वांछा को छोड़कर, धन, धान्य, स्वर्ण, क्षेत्र, स्थान आदि को अपनी सामर्थ्य जानकर परिमाण करता है - कि इतने परिग्रह से मुझे निर्वाह करना है, अधिक परिग्रह में प्रवृत्ति करने का मेरा त्याग है - इस प्रकार परिग्रह को पापरूप जानकर उसकी वांछा छोडता है. उसके परिग्रह परिमाण नाम का पाँचवाँ अणुव्रत होता है। परमागम में परिग्रह का लक्षण मूर्छा कहा है। जीव को जो पर पदार्थों में ममता बुद्धि है, वही मूर्छा है। पर वस्तु को अपना माननेरूप जो राग (मिथ्यात्व) है, उसके कारण आत्मा जीवन-मरण, हित-अहित, योग्य-अयोग्य के विचार में अचेत हो रहा है। मोह की उदीरणा से पर द्रव्य में जो यह मेरा-मेरा ऐसा परिणाम है, वही मूर्छा है, भगवान ने मूर्छा ही को परिग्रह कहा है। इसलिये जो मूर्छावान है, वह परिग्रही है, चाहे उसके पास बाह्य परिग्रह थोड़ा हो या समस्त परिग्रह से रहित ही हो। वही करते हैं : बाहिर गंथ विहिणा दलिद्द मणुआ सहावदो हुंति । अभंतरगंथ पुण ण सक्कदे कोवि छंडेदुं ।।३८७।। का. अनु. अर्थ :- बाह्य परिग्रह रहित तो दरिद्री मनुष्य स्वभाव से ही होते हैं परंतु अंतरंग ममता छोड़ने में कोई भी समर्थ नहीं है, अत: मूर्छा ही परिग्रह है। ऐसा ही देखते भी हैं। हजारों लाखों मनुष्य ऐसे हैं, जिन्हें जन्म लेने के बाद पीतल, तांबा, कांसा का बर्तन मिला ही नहीं है; जिन्होंने जन्म से लेकर आज तक घी खाया ही नहीं; लड्डू आदि खाये ही नहीं; पाग, अंगरखी, जामा कभी पहिना ही नहीं, स्त्री से विवाह हुआ ही नहीं; कभी पेटभर भोजन मिला ही नहीं, स्वर्ण आदि देखा ही नहीं, समस्त जीवन में दो चार दिन के खाने योग्य अन्न भी संग्रह हुआ नहीं; सोने चांदी के तो दर्शन भी हुए नहीं, पैसा रुपया एक भी जिनको कभी प्राप्त हुआ नहीं; रहने को कुटी मात्र भी जिनकी अपनी हुई नहीं, ऐसे अनेक मनुष्य हैं। इसलिए मूर्छा ही वास्तव में परिग्रह है। यहाँ कोई प्रश्न करता है - यदि मूर्छा ही परिग्रह है तो बाह्य धन, धान्य, वस्त्र आदि बाह्य वस्तु के संयोग-संग्रह को परिग्रहपना नहीं रहा ? Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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